डॉ कुंदन सिंह परिहार
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम लघुकथा – ‘अपना अपना धर्म‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 266 ☆
☆ कथा-कहानी ☆ लघुकथा – अपना अपना धर्म ☆
नवीन भाई रिटायर होने के बाद घोर धार्मिक हो गये हैं। पहले दोस्तों के साथ बैठकर कभी-कभी सुरा-सेवन हो जाता था। दफ्तर में भी दिन भर में हजार पांच सौ रुपया ऊपर के कमा लेते थे। अब सब प्रकार के पापों से तौबा कर ली है। अब लौं नसानी, अब ना नसैंहौं। परलोक की फिक्र करना है।
अब रोज नहा-धो कर नवीन भाई करीब एक घंटा पूजा करते हैं। सभी देवताओं की स्तुति गाते हैं। बाद में भी बैठे-बैठे ध्यानस्थ हो जाते हैं। बार-बार आंख मूंद कर हाथ जोड़ते हैं, कानों को हाथ लगाते हैं। शाम को कॉलोनी के छोटे से मन्दिर में बैठ जाते हैं। वहां अन्य भक्तों से सत्संग हो जाता है, शंका-निवारण भी हो जाता है। हर साल तीर्थ यात्रा का प्लान भी बन गया है। परिवार के सदस्य उनके ‘सुधरने’ से प्रसन्न हैं।
नवीन भाई के घर में खाना बनाने वाली लगी है। पहले कई खाना बनाने वालीं काम छोड़ चुकीं क्योंकि नवीन भाई को खाने में मीन-मेख निकालने की आदत रही। लेकिन रिटायरमेंट के बाद वे शान्त और सहनशील हो गये हैं।
कुछ दिन पहले घर में खाना बनाने के लिए केसरबाई लगी है। बड़ी धर्म-कर्म वाली है। घर में प्रवेश करते ही बच्चों समेत सबसे हाथ जोड़कर ‘राधे-राधे’ कहती है। सफेद साड़ी पहनती है जिसका छोर गर्दन में लपेटकर पुरी भक्तिन बनी रहती है। रास्ते में किसी मन्दिर से चन्दन का सफेद टीका लगा लेती है। किचिन में घुसते ही मोबाइल पर भजन चालू कर लेती है और उसके साथ सुर में सुर मिलाकर गुनगुनाती रहती है। टीवी पर कोई धार्मिक चैनल चलता हो तो काम भूल कर बड़ी देर तक वहीं खड़ी रह जाती है।
नवीन भाई की पत्नी उससे प्रसन्न रहती हैं क्योंकि वह किसी बात को लेकर झिकझिक नहीं करती। अपने में मगन रहती है। लेकिन नवीन भाई को उसके गुनगुनाने से चिढ़ होती है। उसका सुर फूटते ही उनके ओंठ टेढ़े हो जाते हैं।
केसरबाई को आने में कई बार देर होती है। कहीं बिलम जाती है। आने पर बताती है कि रास्ते में कहीं कथा या भागवत सुनने बैठ गयी थी। सुनकर नवीन भाई का रक्तचाप बढ़ता है। मन को एकाग्र करना मुश्किल होता है। बीच में एक बार तीन-चार दिन के लिए मिसेज़ चौबे के साथ वैष्णो देवी चली गयी थी। तब भी नवीन भाई का बहुत खून जला था। मिसेज़ चौबे हर साल एक महिला को अपने खर्चे पर अपने साथ तीर्थ यात्रा पर ले जाती हैं। उनके खयाल से ऐसा करने से उन्हें अतिरिक्त पुण्य की प्राप्ति होती है।
नवीन भाई केसरबाई की भक्ति से चिढ़ते हैं क्योंकि उन्होंने पढ़ा है कि हर आदमी का निश्चित धर्म होता है और उसे अपने धर्म के हिसाब से ही काम करना चाहिए। दूसरे के धर्म की नकल नहीं करनी चाहिए। केसरबाई का धर्म दूसरों की सेवा करना है, इसीसे उसका कल्याण होगा। उसके मुंह से धर्म-कर्म की बातें उन्हें फालतू लगती हैं। वे गीता का हवाला देते हैं कि अपने-अपने स्वाभाविक कर्म में तत्परता से लगा हुआ मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त हो जाता है।
कई बार नवीन भाई का मन होता है कि वे केसरबाई से कहें कि धर्म-कर्म की बातें छोड़कर अपने काम की तरफ ध्यान दे। फिर यह सोचकर चुप रह जाते हैं कि वह कहीं नाराज़ होकर उनका काम न छोड़ दे। बिना बखेड़ा किये उनका काम करती रहे, यही बहुत है।
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈