हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 267 – सहजता… ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆
श्री संजय भारद्वाज
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 267 ☆ सहजता…
सहज सहज सब कोई कहै, सहज न चीन्हैं कोय।
जिन सहजै विषया तजै, सहज कहावै सोय।।
कबीरदास जी लिखते हैं कि सहज-सहज सब कहते हैं, परन्तु सहजता को समझते या पहचानते नहीं। जिन्होंने सहजरूप से विषय-वासनाओं का परित्याग कर दिया है, कामनाओं से मुक्त हो गये हैं, वे ही सहज हैं।
व्यापक परिप्रेक्ष्य में विचार करें तो जीवन सरल है पर सिक्के का दूसरा पहलू है कि सरल होना, सबसे कठिन है। सरलता पर कुटिलता के अतिक्रमण ने मनुष्य की कुलीनता को ही ढक दिया है। मनुष्य कुल का होना बुद्धि के वरदान से सम्पन्न होना है पर मनुष्य अपने बनाये कृत्रिम मानकों की रक्षा में जीवन भर मुखौटे लगाकर जीता है, चेहरे पर चेहरे चढ़ाकर जीता है।
केंचुली उतारते साँप को देखा,
कौन अधिक विषधर,
चेहरे चढ़ाते इंसान को देखा…!
मंच या परदे पर कलाकार मुखौटा लगाने को विवश है। वह भूमिका समाप्त होते ही मुखौटा निकाल देता है पर निजी जीवन में प्रतिदिन, निरंतर, अविराम मुखौटा लगाता है आदमी। अधिकांश मामलों में मुखौटा लगाये-लगाये ही उसकी मृत्यु भी हो जाती है, अर्थात जीवन के विराम लेने तक लगा रहता है मुखौटा अविराम।
सहज होना, सरल होना, सत्य के साथ होना। यूँ भी ‘सहज’ का शाब्दिक अर्थ देखें तो ‘सह’ याने साथ में और ‘ज’ याने जन्मा। सृष्टि का होना, उसमें उसके एक घटक मनुष्य का होना, परम सत्य है। सत्य के जगत में लुकाव-छिपाव हो ही नहीं सकता। पक्षी और प्राणी जगत इस सत्य के साथ जीवन व्यतीत करता है। अपवाद केवल मनुष्य है। मनुष्य जो दिखता है, अधिकांश मामलों में वह होता नहीं। बेहतर होने के बजाय बेहतर दिखने, बेहतर प्रदर्शित होने की लिप्सा, उसे सत्य से असत्य, सरल से कठिन, सहज से जटिल की ओर ले जाती है। ओढ़ी हुई यह जटिलता मनुष्य के जीवन-आनंद को नष्ट करती है। धारा को रोक दिया तो प्रवाह का नाश अवश्यंभावी है।
‘पाखंड’ शीर्षक की अपनी कविता स्मरण आ रही है,
मुखौटों की/ भीड़ से घिरा हूँ,
किसी चेहरे तक/ पहुँचूँगा या नहीं
….प्रश्न बन खड़ा हूँ,
मित्रता के मुखौटे में/ शत्रुता छिपाए,
नेह के आवरण में/ विद्वेष से झल्लाए,
शब्दों के अमृत में/ गरल की मात्रा दबाए,
आत्मीयता के छद्म में/ ईर्ष्या से बौखलाए,
मनुष्य मुखौटे क्यों जड़ता है,
भीतर-बाहर अंतर क्यों रखता है?
मुखौटे रचने-जड़ने में/ जितना समय बिताता है
जीने के उतने ही पल / आदमी व्यर्थ गंवाता है,
श्वासोच्छवास में कलुष ने
अस्तित्व को कसैला कर रखा है,
गंगाजल-सा जीवन जियो मित्रो,
पाखंड में क्या रखा है..?
जीवन को गंगाजल-सा रखो ताकि धारा बनी रहे, प्रवाह बना रहे, जीने का आनंद धाराप्रवाह रहे।
© संजय भारद्वाज
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
संजयउवाच@डाटामेल.भारत
writersanjay@gmail.com
☆ आपदां अपहर्तारं ☆
मार्गशीर्ष साधना 16 नवम्बर से 15 दिसम्बर तक चलेगी। साथ ही आत्म-परिष्कार एवं ध्यान-साधना भी चलेंगी
इस माह के संदर्भ में गीता में स्वयं भगवान ने कहा है, मासानां मार्गशीर्षो अहम्! अर्थात मासों में मैं मार्गशीर्ष हूँ। इस साधना के लिए मंत्र होगा-
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
इस माह की शुक्ल पक्ष की एकादशी को गीता जयंती मनाई जाती है। मार्गशीर्ष पूर्णिमा को दत्त जयंती मनाई जाती है।
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈