हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३८ – “जिम्मेदार शिक्षक – स्व. कवि पं. दीनानाथ शुक्ल” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆
श्री प्रतुल श्रीवास्तव
वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।
प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन
(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व “जिम्मेदार शिक्षक – स्व. कवि पं. दीनानाथ शुक्ल” के संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)
आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –
हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆
हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆
हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆
हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
स्व. कवि पं. दीनानाथ शुक्ल
☆ कहाँ गए वे लोग # ३७ ☆
☆ “जिम्मेदार शिक्षक – स्व. कवि पं. दीनानाथ शुक्ल” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆
विविध विषयों का ज्ञान, धीर – गंभीर व्यक्तित्व और ओजस्वी वाणी, ज्ञान पिपासुओं को निःस्वार्थ मार्गदर्शन और अपने अनुभव देते रहना, पं. दीनानाथ शुक्ल के इन गुणों ने उन्हें जीवन काल में ही विशिष्ट बना दिया था। शुक्ल जी का जन्म 1 जुलाई 1932 को छतरपुर जिले में हुआ। कम आयु में ही वे शासकीय शिक्षक नियुक्त हो गए। दीनानाथ जी ज्ञान पिपासु थे। शिक्षक बनने के बाद उनकी ज्ञान पिपासा और बढ़ गई। उन्होंने रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय, जबलपुर से राजनीति शास्त्र में एम. ए. किया। एम.एड. की परीक्षा में शुक्ल जी को स्वर्ण पदक प्राप्त हुआ। एक श्रेष्ठ शिक्षक के साथ ही अच्छे कवि, साहित्यकार के रूप में उनकी ख्याति सुदूर क्षेत्रों तक व्याप्त थी।
हिंदी और अंग्रेजी के विद्वान पं. दीनानाथ शुक्ल ने यद्यपि हिंदी में भी लिखा है तथापि साहित्य सृजन के लिए उन्होंने अपने जन्म स्थान छतरपुर की बोली – बानी “बुंदेली” को चुना। उनकी पांडित्य पूर्ण, हास – परिहास से युक्त, जागरण की प्रेरणा देती बुंदेली रचनाओं का साहित्य जगत में महत्वपूर्ण स्थान है।
“ईपै अधिक न सोचौ” पं. दीनानाथ शुक्ल का बुंदेली में रचा व्यंग्य कविताओं का संग्रह है। लोक रस – युक्त इन कविताओं में जीवन के विविध रंग हैं, किंतु मूल भाव जीवन को सुमार्ग पर अग्रसर करने – कराने का है।
“नओ उजेरो” कविता में वे कहते हैं –
कका दाउ जू संझले मंझले दद्दा, बब्बा नन्ना,
हलके बड़े मौसिया नन्ने जीजा फूफा मम्मा।
नाते भये अलोप सबई अब, लै लै नाम पुकारत,
अंकल डैडी ब्रदर कान के, पर्दा चीरें डारत।
सब हो गओ का सपनो,
गांव बदल गओ अपनों।
भाव अभिव्यक्ति के लिए शुक्ल जी के पास बुंदेली के इतने सटीक शब्द थे कि वे श्रोता – पाठक के समक्ष तत्काल उनका अर्थ प्रगट करते थे। उनकी बुंदेली भाषा – शैली अत्यंत सहज सरल थी।
पं. दीनानाथ शुक्ल की भाषा की सहज ग्राह्यता देखिए –
यंत्री के मंत्री झल्लाने – इत्तो माल न खाओ,
सड़क बनी ती इतै कहां गइ, नक्शा मोय दिखाओ।
नक्शा मोय दिखाओ, पूरी कीके पेट समानी,
भ्रष्टाचार तकैया पूंछत, कैसें भइ नुकसानी।
हांत जोर कें यंत्री बोलो – डामल तौ मैं खा गओ,
गिट्टी मुरम बोल्डर प्रभु के, साले पेट समा गओ।
और इसे पढ़ें –
दंगा मैं पथरा सन्नाबै, दूरइ, सें जो लरका –
“गोला तवा फेंक” में भेजौ, पता लगा कें घर का।
चिरइ-चिरोंटा गिरदौना जो, तक गुलेल सें मारत –
चुन लो उन्हें “निशान लगाबे”, बाजी बे नइं हारत।
पं. दीनानाथ शुक्ल ने हमेशा कभी स्वयं के माध्यम से तो कभी अपने आसपास रहने वाले लोगों के माध्यम से अपनी बात कही है –
तानें हमें न मारौ, अपनो अपनो रूप निहारौ।
दई बनाओ तुमें ऊजरौ, हमें बना दऔ कारौ
ईमें का है दोष हमारौ, ताने हमें न मारौ। ।
शुक्ल जी अपनी जो भी रचनाएं लोगों को स्वतः सुनते थे, उनके प्रभावशाली प्रस्तुतीकरण के कारण वे रचनाएं श्रोताओं के मन में अमित छाप छोड़ती थीं। पं. दीनानाथ जी ने सदा रचनाकारों को बुंदेली में लिखने प्रेरित किया और उन्हें मार्गदर्शन दिया। अनेक लोकभाषाई कवि सम्मेलनों में बुंदेली का प्रतिनिधित्व करके प्रशंसा अर्जित करने वाले पं. दीनानाथ शुक्ल जी को समय समय पर अनेक संस्थाओं – संगठनों द्वारा सम्मानित किया गया। अपने सहज – सरल उद्देश्यपूर्ण बुंदेली गीतों के कारण वे साहित्य जगत में सदा याद किए जाएंगे।
“दीनानाथ” अकल ताकत के, “ठेंगन” की बलिहारी –
जीने सीखो मंत्र, ओई सें, झुक रइ दुनिया सारी।
“दीनानाथ”कहते हैं, अक्ल की ताकत के ठेंगे की बलिहारी ! जिसने यह मंत्र सीखा उसके सामने सारी दुनिया झुक रही है।
© श्री प्रतुल श्रीवास्तव
संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629
संकलन – जय प्रकाश पाण्डेय
संपर्क – 416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002 मोबाइल 9977318765
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈