श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”
संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी के साप्ताहिक स्तम्भ “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है आपके “मनोज के दोहे”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।
मनोज साहित्य # 155 – सजल – एक-एक कर बिछुड़े अपने ☆
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पानी जब हो कुनकुना, तभी नहाते रोज।
काँप रहा तन ठंड से, प्राण प्रिये दे भोज।।
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धूप सुहानी लग रही, शरद शिशिर ऋतु मास।
बैठे कंबल ओढ़ कर, गरम चाय की आस।।
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नर्म दूब में खेलतीं, रोज सुबह की बूँद।
सूरज की किरणें उन्हें, सिखा रहीं हैं कूँद।।
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ठिठुरन बढ़ती जा रही, ज्यों-ज्यों बढ़ती रात।
खुला हुआ आकाश चल, मिल-जुल करते बात।।
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सूरज की अठखेलियाँ, दिन में करे बवाल।
शीत लहर का आगमन, तन-मन है बेहाल।
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© मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”
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