श्री संजय भारद्वाज
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 269 ☆ मढ़ी न होती चामड़ी…!
संध्या भ्रमण के लिए मुझे सूनी सड़क के सूने फुटपाथ पसंद हैं। यद्यपि महानगर में यह पसंद स्वप्न से अधिक कुछ नहीं होती। तथापि भाग्यवश कैंटोन्मेंट प्रभाग में निवास होने के कारण ऐसी एकाध सड़कें बची हुई हैं। ऐसी ही तुलनात्मक रूप से सूनी एक सड़क के कम भीड़भाड़ वाले फुटपाथ पर भ्रमण कर रहा हूँ।
सूर्यास्त का समय है। डूबते सूरज के धुँधलके में मनुष्य साये में बदलता दिखता है। साँझ और साया..! जीवन की साँझ और साया रह जाना! यूँ दिन भर साथ चलती परछाई भी साया होने के सत्य को इंगित कर रही होती है। सूर्योदय से सूर्यास्त की परिक्रमा दैनिक रूप से मनुष्य को नश्वरता का शाश्वत स्मरण कराती है।
अस्तु! भ्रमण जारी है। भ्रमण के साथ अवलोकन भी जारी है। मुझसे कुछ आगे एक युवक चल रहा है। वह सिगरेट का कश लेकर धुआँ आसमान की ओर छोड़ रहा है। देखता हूँ कि यह धुआँ एक आकार लेकर धीरे-धीरे ऊपर उठ रहा है। धुएँ का आकार देखकर अवाक हूँ। यह कंकाल का आकार है। मनुष्य द्वारा फूँका जाता धुआँ, मनुष्य को फूँकता धुआँ। कंकाल पर देह ओढ़ता मनुष्य, देह का ओढ़ना खींचकर मनुष्य को कंकाल करता धुआँ।
यूँ देखें तो देह का भौतिक अस्तित्व कंकाल पर ही टिका है। कंकाल आधार है, माँस-मज्जा आधार पर चढ़ी सज्जा है। चमड़ी की सज्जा न होती तो क्या मनुष्य दैहिक आकर्षण में बंध पाता?
दृष्टांत है कि एक गाँव में एक रूपसी अकेली रहती थी। गाँव के जमींदार का उसके रूप पर मन डोल गया। वासना से पीड़ित जमींदार उस स्त्री के घर पहुँचा। महिला ने प्राकृतिक चक्र की दुहाई देकर चार दिन बाद आने के लिए कहा। जमींदार के लौट जाने के बाद उस रूपसी ने रेचक का बड़ी मात्रा में सेवन कर लिया। रेचक के प्रभाव के चलते उसे पुन:- पुन: शौच के लिए जाना पड़ा। स्थिति यह हुई कि सारा का सारा माँस शरीर से उतर गया और वह कंकाल मात्र रह गई। चार दिन बाद आया जमींदार उल्टे पैर लौट गया।
लोकोक्ति है,
सुंदर देह देखकर उपजत मन अनुराग।
मढ़ी न होती चामड़ी तो जीवित खाते काग।
प्रकृति सुंदर है। दैहिक सौंदर्य का आकर्षण भी स्वाभाविक है। तथापि आत्मिक सौंदर्य न हो तो दैहिक सौंदर्य व्यर्थ हो जाता है। सहज रूप से उगे गुलाब पुष्प की सुगंध नथुनों में गहरे तक समाती है। वहीं बड़े करीने से तैयार किए हाईब्रीड गुलाब दिखते तो सुंदर हैं पर सुगंध के नाम पर शून्य। सुगंध आत्मिकता है, शेष सब धुआँ है।
दूर श्मशान से धुआँ उठता देख रहा हूँ। किसी देह का ओढ़ना धुआँ-धुआँ हो रहा है। सबके लिए समान रूप से लागू इस नियम में बिरले ही होते हैं जो धुआँ होने के बाद भी अपनी आत्मिकता के कारण चिर स्मरणीय हो जाते हैं। दैहिक सौंदर्य के साथ मनुष्य आत्मिक सौंदर्य के प्रति भी सजग हो जाए तो धुआँ होने से पहले जग को सुवासित करेगा और आगे धुआँ इस सुवास को अनंत में प्रसरित करेगा।
हर मनुष्य आत्मिक सौंदर्य का धनी हो।… तथास्तु!
© संजय भारद्वाज
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
संजयउवाच@डाटामेल.भारत
☆ आपदां अपहर्तारं ☆
मार्गशीर्ष साधना 16 नवम्बर से 15 दिसम्बर तक चलेगी। साथ ही आत्म-परिष्कार एवं ध्यान-साधना भी चलेंगी
इस माह के संदर्भ में गीता में स्वयं भगवान ने कहा है, मासानां मार्गशीर्षो अहम्! अर्थात मासों में मैं मार्गशीर्ष हूँ। इस साधना के लिए मंत्र होगा-
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
इस माह की शुक्ल पक्ष की एकादशी को गीता जयंती मनाई जाती है। मार्गशीर्ष पूर्णिमा को दत्त जयंती मनाई जाती है।
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈