डॉ कुंदन सिंह परिहार
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम व्यंग्य – ‘तलाश बकरों की’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 268 ☆
☆ व्यंग्य ☆ तलाश बकरों की ☆
सरकार के सब विभागों ने ज़ोर-शोर से विज्ञापन निकाले हैं। विज्ञापन बकरों के लिए है, ऐसे लोगों के लिए जो हर विभाग में किसी बड़े लफड़े के लिए ज़िम्मेदारी लेंगे। दे विल टेक द ब्लेम फ़ाॅर एवरी बिग स्कैम ऑर मिसडूइंग।
दरअसल कई दिनों से विभागों में यह चर्चा चल रही थी कि सरकारी विभागों में कोई न कोई लफड़ा, कोई न कोई भ्रष्टाचार होता ही रहता है, जिससे बच पाना बहुत मुश्किल है। कौटिल्य के शब्द अक्सर दुहराए जाते रहे कि ‘जैसे जीभ पर रखा रस इच्छा हो या न हो, चखने में आ ही जाता है, इसी प्रकार राज्य के आर्थिक कार्यों में नियुक्त अधिकारी, इच्छा हो या न हो, राजकोष का कुछ न कुछ तो अपहरण करते ही हैं।’ आर्थिक भ्रष्टाचार के अलावा रेल दुर्घटनाएं, पुलों का ध्वस्त होना, परीक्षा- पेपर लीकेज जैसी घटनाएं होती हैं जिससे मंत्री-अफसर संकट में पड़ते हैं और ज़िम्मेदारी थोपने के लिए बकरे की तलाश की जाती है।
यह बात भी चलती थी कि जब लफड़ा उजागर होता है तो आखिरी छोर पर बैठे सबसे जूनियर और सबसे निर्बल कर्मचारी के ऊपर ठीकरा फोड़ दिया जाता है और ऊपर के लोग चैन की सांस लेते हैं। कारण यह है कि नेताओं-मंत्रियों पर तो हाथ डाला नहीं जा सकता क्योंकि पार्टी की छवि खराब होगी और वोट खतरे में पड़ेंगे। अफसरों को पकड़ेंगे तो शासन चलाना मुश्किल हो जाएगा। इसलिए जूनियरमोस्ट को बलि का बकरा बना देना ही सबसे सुरक्षित होता है। इसी झंझट से मुक्ति पाने के लिए बकरों की सीधी भर्ती का निर्णय लिया गया।
अंग्रेज़ी में बलि के बकरे के लिए ‘स्केपगोट’ शब्द है जिसमें ‘गोट’ यानी ‘बकरा’ शब्द निहित है। ‘स्केपगोट’ शब्द की उत्पत्ति प्राचीन इज़राइल में हुई जहां पवित्र दिन पर एक बकरे के सिर पर समाज के सारे पाप आरोपित कर दिये जाते थे और फिर उसे जंगल में छोड़ दिया जाता था। इस तरह समाज साल भर के लिए पापमुक्त हो जाता था। यानी, ‘स्केपगोट’ वहां वही काम करता था जो हमारे यहां गंगाजी करती हैं।
गरीब, निर्बल लोग हमेशा रसूखदारों की गर्दन बचाने के लिए ‘स्केपगोट’ बनते रहे हैं। जैसे देवताओं को प्रसन्न करने के लिए बकरे की बलि दी जाती थी, ऐसे ही किसी दुर्घटना के बाद जनता के गुस्से को शान्त करने के लिए किसी मरे- गिरे बकरे को सूली पर चढ़ा दिया जाता है। कहीं पढ़ा था कि रसूखदार लोग मजबूर लोगों को अपनी जगह जेल में सज़ा काटने के लिए स्थापित करवा देते हैं।
अंग्रेज़ी में एक और दिलचस्प शब्द ‘व्हिपिंग बाॅय’ आता है जो कई देशों में उन लड़कों के लिए प्रयोग होता था जो राजकुमारों और रसूखदार लोगों के बालकों के साथ स्कूल भेजे जाते थे और जिन्हें रसूखदार बच्चों की गलतियों की सज़ा दी जाती थी। कारण यह था कि मास्टर साहब की हैसियत रसूखदारों के बच्चों को सज़ा देने की नहीं होती थी।
विज्ञापन में लिखा गया कि बकरा सिर्फ बारहवीं पास हो ताकि दस्तखत वस्तखत कर सके। उसे दफ्तर के बाबू के बराबर तनख्वाह मिलेगी। उसे दफ्तर आने-जाने से छूट मिलेगी, दो-चार दिन में कभी भी आकर हाज़िरी रजिस्टर में दस्तखत कर सकेगा।
उसकी ड्यूटी सिर्फ इतनी होगी कि जब विभाग में कोई बड़ा लफड़ा हो जिसमें अफसर और दूसरे कर्मचारियों के फंसने का डर हो तो वह बहादुरी से अपनी गर्दन आगे बढ़ाये और कहे, ‘सर, आई एम द कलप्रिट। आई टेक द ब्लेम।’
विज्ञापन में यह ज़िक्र किया गया कि नियुक्ति से पहले बकरे की मनोवैज्ञानिक जांच होगी ताकि वह ऐन मौके पर डर कर ज़िम्मेदारी लेने से पीछे न हट जाए।
विज्ञापन में यह भी बयान किया गया कि बकरे के सस्पेंड होने पर उसकी पगार में कोई कटौती नहीं की जाएगी और जेल जाने की नौबत आने पर पूरी तनख्वाह उसकी फेमिली को पहुंचायी जाएगी। इसके अलावा उसके फंसने पर उसे बचाने के लिए महकमे की तरफ से कोई कसर नहीं छोड़ी जाएगी।
इस नीति के बारे में पूछे जाने पर आला अफसर भारतेन्दु हरिश्चंद्र के नाटक ‘अंधेर नगरी’ का हवाला देते हैं जिसमें फांसी का फन्दा उसी के गले में डाला जाता था जिसके गले में वह अंट सकता था।
ताज़ा ख़बर यह है कि सिंधुदुर्ग में शिवाजी की 35 फीट ऊंची प्रतिमा स्थापित होने के एक साल के भीतर ज़मींदोज़ हो गयी है और उसके लिए मूर्तिकार की गिरफ्तारी हो गयी है। अब मूर्ति का प्रसाद पाने वाले ऊपर बैठे लोग निश्चिन्त हो सकते हैं। अब 60 फीट ऊंची नयी मूर्ति का टेंडर ज़ारी हो गया है। टेंडर में यह शर्त है कि मूर्ति 100 साल खड़ी रहनी चाहिए। उम्मीद है कि नये मूर्तिकार इस शर्त को खुशी-खुशी मान लेंगे क्योंकि 100 साल में वे खुद मूर्ति बनने लायक हो जाएंगे। बकौल ‘ग़ालिब’, ‘ख़ाक हो जाएंगे हम तुमको ख़बर होने तक।’
उधर बिहार में पुल जितनी तेज़ी से बन रहे हैं उससे ज़्यादा तेज़ी से गिर रहे हैं। नतीजतन छोटे-मोटे बकरों को पकड़ कर लाज बचायी जा रही है, और जनता मजबूरी में नावों पर सवार होकर उनके पलटने से मर रही है। जब तक ज़िम्मेदारी ओढ़ने के लिए बकरे उपलब्ध हैं तब तक कोई चिन्ता की बात नहीं है।
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈