हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #260 ☆ शब्दों की सार्थकता… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख शब्दों की सार्थकता। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 260 ☆

☆ शब्दों की सार्थकता… ☆

‘सोच कर बोलना व बोलकर सोचना/ मात्र दो शब्दों के आगे-पीछे इस्तेमाल से ही उसके अर्थ व परिणाम बदल जाते हैं’ बहुत सार्थक है। मानव को ‘पहले तोलो, फिर बोलो’ अर्थात् बोलने से पूर्व सोचने-विचारने व चिंतन-मनन करने का संदेश प्रेषित किया गया है। जो लोग आवेश में आकर बिना सोचे-समझे बोलते हैं तथा तुरंत प्रतिक्रिया देते हैं; वे अपने लिए मुसीबतों का आह्वान करते हैं। मानव को सदैव मधुर वचन बोलने चाहिए जो दूसरों के मन को अच्छे लगें, प्रफुल्लित करें तथा उनका प्रभाव दीर्घकालिक हो। कटु वचन बोलने वाले से कोई भी बात करना पसंद नहीं करता। रहीम के शब्दों में ‘वाणी ऐसी बोलिए, मनवा शीतल होय/ औरों को शीतल करे, ख़ुद भी शीतल होय’ सबको अपनी ओर आकर्षित करता है तथा हृदय को शीतलता प्रदान करता है। कटु वचन बोलने वाला दूसरे को कम तथा स्वयं को अधिक हानि पहुंचाता है–जिसका उदाहरण आप सबके समक्ष है। द्रौपदी के एक वाक्य ‘अंधे की औलाद अंधी’ से महाभारत का भीषण युद्ध हुआ जो अठारह दिन तक चला और उसके भयंकर परिणाम हम सबके समक्ष हैं। इन विषम परिस्थितियों में भगवान कृष्ण ने युद्ध के मैदान कुरुक्षेत्र से गीता का संदेश दिया जो अनुकरणीय है। इतना ही नहीं, विदेशों में गीता को मैनेजमेंट गुरु के रूप में पढ़ाया जाता है। निष्काम कर्म के संदेश को अपनाने मात्र से जीवन की सभी समस्याओं का समाधान हो जाता है, क्योंकि यह मानव को अपेक्षा-उपेक्षा के व्यूह से बाहर निकाल देता है। वास्तव में यह दोनों स्थितियाँ ही घातक हैं। इनसे हृदय को आघात पहुंचता है और मानव इनके व्यूह से आजीवन मुक्त नहीं हो पाता। यदि आप किसी से उम्मीद रखते हैं तो उसके पूरा न होने पर आपको दु:ख होता है और दूसरों द्वारा उपेक्षा के दंश के व्यूह से भी आप आजीवन मुक्त नहीं हो सकते।

‘एक चुप, सौ सुख’ मुहावरे से तो आप सब परिचित होंगे। बुद्धिमानों की सभा में यदि कोई मूर्ख व्यक्ति मौन रहता है तो उसकी गणना बुद्धिमानों में की जाती है। इतना ही नहीं, मौन वह संजीवनी है, जिससे बड़ी-बड़ी समस्याओं का अंत सहज रूप में हो जाता है। प्रत्युत्तर अथवा तुरंत प्रतिक्रिया न देना भी उस स्थिति से निज़ात पाने का अत्यंत कारग़र उपाय है। शायद इसीलिए कहा जाता है कि ‘बुरी संगति से अकेला भला’ अर्थात् मौन अथवा एकांत मानव की भीतरी दिव्य शक्तियों को जागृत करता है तथा समाधिवस्था में पहुंचा देता है। वहाँ हमें अलौकिक शक्तियों के दर्शन होते हैं तथा बहुत से प्रक्षिप्त रहस्य उजागर होने लगते हैं। यह मन:स्थिति मानव की इहलोक से परलोक की यात्रा कहलाती है।

सोचकर व सार्थक बोलना मानव के लिए अत्यंत उपयोगी है और वह मात्र पद-प्रतिष्ठा प्रदाता ही नहीं, उसे सिंहासन पर भी बैठा सकता है। विश्व के सभी प्रबुद्ध व्यक्ति चिंतन-मनन करने के पश्चात् ही मुख खोलते हैं। सो! उनके मुख से नि:सृत वाणी प्रभावमयी होती है और लोग उसे वेद वाक्य समझ हृदय में धारण कर लेते हैं। यह उनके व्यक्तित्व में चार चाँद लगा देता है। बड़े- बड़े ऋषि मुनि व संतजन इसका प्रमाण हैं और उनकी सीख अनुकरणीय है–’यह जीवन बड़ा अनमोल बंदे/ राम-राम तू बोल’ लख चौरासी से मुक्ति की राह दर्शाता है।

इसके विपरीत बोलकर सोचने के उपरांत मानव  किंकर्तव्यविमूढ़ की भयावह स्थिति में पहुंच जाता है, जिसके  प्रत्याशित परिणाम मानव को चक्रव्यूह में धकेल देते हैं और वहाँ से लौटना असंभव हो जाता है। हमारी स्थिति रहट से बंधे उस बैल की भांति हो जाती है जो दिनरात चारों ओर चक्कर लगाने के पश्चात् लौटकर वहीं आ जाता है। उसी प्रकार हम लाख चाहने पर भी हम अतीत की स्मृतियों से बाहर नहीं निकल पाते और हमारा भविष्य अंधकारमय हो जाता है। हम सिवाय आँसू बहाने के कुछ नहीं कर पाते, क्योंकि गुज़रा समय कभी लौटकर नहीं आता। उसे भुला देना ही उपयोगी है, लाभकारी है, श्रेयस्कर है। यदि हमारा वर्तमान सुखद होगा तो भविष्य अवश्य स्वर्णिम होगा। हमें जीवन में पद-प्रतिष्ठा, मान- सम्मान आदि की प्राप्ति होगी। हम मनचाहा मुक़ाम प्राप्त कर सकेंगे और लोग हमारी सराहना करेंगे।

समय निरंतर चलता रहता है और वाणी के घाव नासूर बन आजीवन रिसते रहते हैं। इसलिए मानव को सदा सोच-समझ कर बोलना चाहिए ताकि वह निंदा व प्रशंसा के दायरे से मुक्त रह सके। अकारण प्रशंसा उसे पथ-विचलित करती है और निंदा हमारे मानसिक संतुलन में व्यवधान डालती है। प्रशंसा में हमें फिसलना नहीं चाहिए और निंदा से पथ-विचलित नहीं होना चाहिए। जीवन में सामंजस्य बनाए रखना अत्यंत आवश्यक व कारग़र है। समन्वय जीवन में सामंजस्यता की राह दर्शाता है। इसलिए हर विषम परिस्थिति में सम रहने की सीख दी गई है कि वे सदैव सम रहने वाली नहीं हैं, क्योंकि वे तो समयानुसार परिवर्तित होती रहती हैं। ‘दिन रात बदलते हैं/ हालात बदलते हैं/ मौसम के सा-साथ/ फूल और पात बदलते हैं’ उक्त भाव को पोषित करते हैं।

इसलिए मानव को सुख-दु:ख, हानि-लाभ, प्रशंसा-निंदा अपेक्षा-उपेक्षा को तज कर सम रहना चाहिए। अंत में ‘ज्ञान दूर, कुछ क्रिया भिन्न है/ इच्छा क्यों पूरी हो मन की/ एक-दूसरे से मिल न सके/ यह विडंबना है जीवन की।’ सो! मानव को ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् ही किसी कार्य को प्रारंभ करना चाहिए। तभी वह अपने मनचाहे लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है और सपनों को साकार कर सकता है। इसलिए मानव को बीच राह आने वाली बाधाओं-आपदाओं व उस के अंजाम के बारे में सोचकर ही उस कार्य को करना चाहिए। सोच-समझ कर यथासमय कम बोलना चाहिए, क्योंकि निर्रथक व अवसरानुकूल न बोलना प्रलाप कहलाता है जो मानव को पलभर में अर्श से फर्श पर लाने का सामर्थ्य रखता है।

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© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈