डॉ. ऋचा शर्मा
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘विडंबना‘। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 146 ☆
☆ लघुकथा – विडंबना ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
“बहू! गैस तेज करो, पूरियाँ तेज आँच पर ही फूलती हैं” यह कहकर सास ने गैस का बटन फुल के चिन्ह की ओर घुमा दिया| पूरियाँ तेजी से फूलकर सुनहरी हो रही थी और घरवाले खा- खाकर। कढ़ाई से निकलता धुआँ पूरियों को सुनहरा बना रहा था और मुझे जला रहा था। मेरी छुट्टियाँ पूरी-कचौड़ी बनाने में खाक हो रही थीं। बहुत दिन बाद एक हफ्ते की छुट्टी मिली थी। कई काम दिमाग में थे, सोचा था छुट्टियों में निबटा लूंगी। लेकिन एक-एक कर सातों दिन नाश्ते- खाने में हवन हो गए।
पति का अनकहा आदेश- “तुम्हारी छुट्टी है अम्मा को थोड़ा आराम दो अब।” बच्चों की फरमाइश – “मम्मी ! अपनी छुट्टी में तो मेरे प्रोजेक्ट में मदद कर सकती हैं ना ?”
बस! बाकी सारे कामकाज चलते रहे, मेरे कामों की फाइलें खुल ही न सकीं। कॉलेज में परीक्षाएँ खत्म हुई थीं, जाँचने के लिए कॉपियों का बंडल मेरी मेज पर पड़ा मेरी राह तकता रह गया। घर भर मेरी छुट्टी को एन्जॉय करता रहा। “बहू की छुट्टी है” का भाव सासू जी को मुक्त कर देता। पति जो काम खुद कर लेते थे अब उन छोटे-मोटे कामों के लिए भी वे मुझे आवाज लगाते।
मन में झुंझलाहट थी, छुट्टी खत्म होने को आई थी। छुट्टी के पहले जो थकान थी, वह छुट्टी खत्म होने तक और बढ़ गई। कल से फिर वही सुबह की भागम-भाग— यह सब बैठी सोच ही रही थी कि पति ने बड़ी सहजता से मेरी पीठ पर हाथ मारते हुए कहा- “बड़ी बोर हो यार तुम? कभी तो खुश रहा करो? छुट्टियों में भी रोनी सूरत बनाए रहती हो।” आराम से सोफे पर लेटकर क्रिकेट मैच देखते हुए उन्होंने अपनी बात पूरी की- “एन्जॉय करो लाइफ को यार!”
© डॉ. ऋचा शर्मा
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