डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख क्या प्रॉब्लम है?। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 261 ☆

☆ क्या प्रॉब्लम है? ☆

‘क्या प्रॉब्लम है’… जी हां! यह वह शाश्वत् प्रश्न है, जो अक्सर पूछा जाता है छोटों से; बराबर वालों से– परंतु आजकल तो ज़माना बदल गया है। अक्सर हर उम्र के लोग इन प्रश्नों के दायरे में आते हैं और हमारे बुज़ुर्ग माता-पिता तथा अन्य परिवारजन– सभी को स्पष्टीकरण देना पड़ता है। सोचिए! यदि रिश्ते में आपसे बहुत छोटी महिला यह प्रश्न पूछे, तो क्या आप सकते में नहीं आ जाएंगे? क्या होगी आपकी मन:स्थिति… जिसकी अपेक्षा आप उससे कर ही नहीं सकते। वह अनकही दास्तान आपकी तब समझ में तुरंत आ जाती है, जब चंद लम्हों बाद आपका अहं/ अस्तित्व पलभर में कांच के आईने की भांति चकनाचूर हो जाता है और उसके असंख्य टुकड़े आपको मुंह चिढ़ाते-से नज़र आते हैं। दूसरे शब्दों में आपको हक़ीक़त समझ में आ जाती है और आप तत्क्षण अचंभित रह जाते हैं यह जानकर कि कितनी कड़वाहट भरी हुई है सोमा के मन में– जब आपको मुजरिम की भांति कटघरे में खड़ा कर दिया जाता है और इल्ज़ामों की एक लंबी फेहरिस्त आपके हाथों में थमा दी जाती है। वह सोमा, जो आपको मान-सम्मान देती थी; सदैव आपकी तारीफ़ करती थी; जिसने इतने वर्ष एक छत के नीचे गुज़ारने के पश्चात् भी पलट कर कभी जवाब नहीं दिया था। वह तो सदैव परमात्मा का शुक्र अदा करती थी कि उसने उन्हें पुत्रवधु नहीं, बड़ी शालीन बेटी दी थी। परंतु जब विश्वास टूटता है; रिश्ते सहसा दरक़ते हैं तो बहुत तकलीफ़ होती है। हृदय कुलबुला उठता है, जैसे अनगिनत कीड़े उसके शरीर पर रेंग रहे हों और वह प्रश्नों के भंवर से चाह कर भी ख़ुद को मुक्त नहीं कर पाती।

‘आपको क्या प्रॉब्लम है?’ यदि बच्चे अपने मम्मी-पापा के साथ एकांत में समय गुज़ारना चाहते हैं; खाने के लिए नीचे नहीं आते तो…परंतु हम सबके लिए यह बंधन क्यों? वह वर्षों से अपने कौन-से दायित्व का वहन नहीं कर रही? आपके मेहमानों के आने पर क्या वह उनकी आवभगत में वह कमी रखती है, जबकि वे कितने-कितने दिन तक यहाँ डेरा डाले रहते हैं? क्या उसने कभी आपका तिरस्कार किया है? आखिर आप लोग चाहते क्या हैं? क्या वह इस घर से चली जाए अपने बच्चों को लेकर और आपका बेटा वह सब अनचाहा करता रहे? हैरान हूं यह देखकर कि उसे दूध का धुला समझ उसके बारे में अब भी अनेक कसीदे गढ़े जाते हैं।

वह अपराधिनी-सम करबद्ध प्रार्थना करती रही थी कि उसने ग़लती की है और वह मुजरिम है, क्योंकि उसने बच्चों को खाने के लिए नीचे आने को कहा है। वह सौगंध लेती है कि  भविष्य में वह उसके बच्चों से न कोई संबंध रखेगी; न ही किसी से कोई अपेक्षा रखेगी। तुम मस्त रहो अपनी दुनिया में… तुम्हारा घर है। हमारा क्या है, चंद दिन के मेहमान हैं। वह क्षमा-याचना कर रही थी और सोमा एक पुलिस अफसर की भांति उस पर प्रश्नों की बौछार कर रही थी।

जब जिह्वा साथ नहीं देती, वाणी मूक हो जाती है तो अजस्र आंसुओं का सैलाब बह निकलता है और इंसान किंकर्त्तव्य- विमूढ़ स्थिति में कोई भी निर्णय नहीं ले पाता। उस स्थिति में उसके मन में केवल एक ही इच्छा होती है कि ‘आ! बसा लें अपना अलग आशियां… जहां स्वतंत्रता हो; मानसिक प्रदूषण न हो; ‘क्या और क्यों’ के प्रश्न उन पर न दाग़े जाएं और वे उन्मुक्त भाव से सुक़ून से अपनी ज़िंदगी बसर कर सकें। इन परिस्थितियों में इंसान सीधा आकाश से अर्श से फ़र्श पर आन पड़ता है; जब उसे मालूम होता है कि इस करिश्में की सूत्रधार हैं कामवाली बाईएं–जो बहुत चतुर, चालाक व चालबाज़ होती हैं। वे मालिक-मालकिन को बख़ूबी रिझाना जानती हैं और बच्चों को वे मीठी-मीठी बातों से खूब बहलाती हैं। परंतु घर के बुज़ुर्गों व अन्य लोगों से लट्ठमार अंदाज़ से बात करती हैं, जैसे वे मुजरिम हों। इस संदर्भ में दो प्रश्न उठते हैं मन में कि वे उन्हें घर से निकालना चाहती हैं या घर की मालकिन उनके कंधे पर रखकर बंदूक चलाना चाहती है? छुरी हमेशा खरबूज़े पर ही पड़ती है, चाहे किसी ओर से पड़े और बलि का बकरा भी सदैव घर के बुज़ुर्गों को ही बनना पड़ता है।

वैसे आजकल तो बाईएं ऐसे घरों में काम करने को तैयार भी नहीं होती, जहां परिवार के सदस्यों के अतिरिक्त अन्य लोग भी रहते हों। परिवार की परिभाषा वे अच्छी तरह से जानती हैं… हम दो और हमारे दो, क्योंकि आजकल पति-पत्नी दोनों अक्सर नौकरी करते हैं। उनके घर से जाने के पश्चात् वे दिनभर अलग-अलग पोशाकों में सज-संवर कर स्वयं को आईने में निहारती हैं। यदि बच्चे छोटे हों, तो सोने पर सुहागा… उन्हें डाँट-डपट कर या नशीली दवा देकर सुला दिया जाता है और वे स्वतंत्र होती हैं मनचाहा करने के लिए। फिर वे क्यों चाहेंगी कि कोई कबाब में हड्डी बन कर वहां रहे और उनकी दिनचर्या में हस्तक्षेप करे? इस प्रकार उनकी आज़ादी में खलल पड़ता है। इसलिए भी वे बड़े बुज़ुर्गों से खफ़ा रहती हैं। इतना ही नहीं, वे उनसे दुर्व्यवहार भी करती हैं, जैसे मालिक नौकर के साथ करता है। जब उन्हें इससे भी उन्हें संतोष नहीं होता; वे अकारण इल्ज़ाम लगाकर उन्हें कटघरे में खड़ा कर देती है और घर की मालकिन को तो हर कीमत पर उनकी दरक़ार रहती है, क्योंकि बाई के न रहने पर घर में मातम-सा पसर जाता है। उस दारुण स्थिति में घर की मालकिन भूखी शेरनी की भांति घर के बुज़ुर्गों पर झपट पड़ती है, जो अपनी अस्मत को ताक़ पर रख कर वहां रहते हैं। एक छत के नीचे रहते हुए भी अजनबीपन का एहसास उन्हें नासूर-सम हर पल सालता रहता है। उस घर का हर प्राणी नदी के द्वीप की भांति अपना-अपना जीवन ढोता है। वे अपने आत्मजों के साथ नदी के दो किनारों की भांति कभी मिल नहीं सकते। वे उनकी जली-कटी सहन करने को बाध्य होते हैं और सब कुछ देखकर आंखें मूँदना उनकी नियति बन जाती है। वे हर पल व्यंग्य-बाणों के प्रहार सहते हुए अपने दिन काटने को विवश होते हैं। उनकी यातना अंतहीन होती है, क्योंकि वहाँ पसरा सन्नाटा उनके अंतर्मन को झिंझोड़ता व कचोटता है। दिनभर उनसे बतियाने वाला कोई नहीं होता। वे बंद दरवाज़े व शून्य छतों को निहारते रहते हैं। बच्चे भी उन अभागों की ओर रुख नहीं करते और वे अपने माता-पिता से अधिक स्नेह नैनी व कामवाली बाई से करते हैं। 

‘हाँ! प्रॉब्लम क्या है’ ये शब्द बार-बार उनके मनोमस्तिष्क पर हथौड़े की भांति का प्रहार करते हैं और वे हर पल स्वयं को अपराधी की भांति दयनीय दशा में पाते हैं। परंतु वे आजीवन इस तथ्य से अवगत नहीं हो पाते कि उन्हें किस जुर्म की सज़ा दी जा रही है? उनकी दशा तो उस नारी की भांति होती है, जिसे उस अपराध के लिए दोषी ठहराया जाता है; जो उसने किया ही नहीं। उन्हें तो अपना पक्ष रखने का अवसर भी प्रदान ही नहीं किया जाता। कई बार ‘क्यों का मतलब’ शब्द उन्हें हांट करते हैं अर्थात् बाई का ऐसा उत्तर देना…क्या कहेंगे आप? सो! उनकी मन:स्थिति का अनुमान आप स्वयं लगा सकते हैं। सो! चिंतन-मनन कीजिए कि आगामी पीढ़ी का भविष्य क्या होगा?

वैसे इंसान को अपने कृत-कर्मों का फल अवश्य भुगतना पड़ता है, क्योंकि जैसा वह करता है, वही लौटकर उसके पास आता है। लोग चिंतित रहते हैं अपने बच्चों के भविष्य के बारे में और यह सोचकर वे हैरान-परेशान रहते हैं। आइए! यह समझने का प्रयास करें कि प्रॉब्लम क्या है और क्यों है? शायद! प्रॉब्लम आप स्वयं हैं और आपके लिए उस स्थान को त्याग देना ही उस भीषण समस्या का समाधान है। सो! मोह-ममता को त्याग कर अपनी राह पर चल दीजिए और उनके सुक़ून में ख़लल मत डालिए। ‘जीओ और जीने दो’, की अवधारणा पर विश्वास रखते हुए दूसरों को भी अमनोचैन की ज़िंदगी बसर करने का अवसर प्रदान कीजिए। उस स्थिति में आप निश्चिंत होकर जी सकेंगे और ‘क्या-क्यों’ की चिंता स्वत: समाप्त हो जाएगी। फलत: इस दिशा में न चिंता होगी; न ही चिंतन की आवश्यकता होगी। 

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© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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