डॉ कुंदन सिंह परिहार
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम विचारणीय लघु कथा – ‘लंबी उम्र का सुख‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 273 ☆
☆ लघुकथा ☆ लंबी उम्र का सुख ☆
भाई हिम्मत लाल 83 के हुए। हिम्मत लाल जी अपने ढंग से ज़िन्दगी जीने के आदी हैं। जो उन्हें पसन्द आता है वही करते हैं। अपने स्वास्थ्य के बारे में बहुत जागरूक रहते हैं। उन्हें गर्व है कि उन्होंने लंबी उम्र पायी।
हिम्मत भाई अपने स्वास्थ्य का बहुत ख़याल रखते हैं। सवेरे उठकर पुल पर टहलने के लिए निकल जाते हैं। वहां लंगड़ा लंगड़ा कर टहलते हुए बूढ़ों को दया की दृष्टि से देखते हैं। अक्सर रुककर उनसे उनकी उम्र पूछते हैं, फिर कहते हैं, ‘मैं 83 का। एकदम फिट हूं।’ फिर उनके चेहरे पर आये ईर्ष्या और बेचारगी के भाव को पढ़कर खुश हो लेते हैं।
घर लौटकर हिम्मत भाई योग करते हैं, उसके बाद च्यवनप्राश के साथ दूध पीते हैं। थोड़ी देर बाद फलों का जूस लेते हैं। कुछ स्वास्थ्य वर्धक दवाएं भी लेते रहते हैं। कपड़ों-लत्तों के मामले में वे अपने को चुस्त रखते हैं। अन्य बूढ़ों की तरह कोई भी कपड़े पहन लेना उन्हें पसन्द नहीं। घर में अक्सर बरमूडा पहन कर रहते हैं। घरवालों को हिदायत है कि उनकी ज़रूरतों का भी उतना ही ख़याल रखा जाए जितना दूसरे सदस्यों की ज़रूरतों का।
शाम को रोज़ वे अपने हमउम्र दोस्तों के साथ किसी के घर या दूकान में बैठक जमाते हैं। दुनिया भर की बातें, हंसी-मज़ाक होता है। टाइम अच्छा कट जाता है।
लेकिन धीरे-धीरे हिम्मत भाई की इस बैठक में गड़बड़ हो रही है। बैठक के सदस्य एक एक कर ग़ायब हो रहे हैं। पता चलता है कि किसी को स्कूटर चलाने की मनाही हो गयी तो कोई घुटने की तकलीफ़ से लाचार हो गया। एक को स्मृति- लोप की शिकायत हो गयी। डर पैदा हो गया कि ऐसा न हो कि घर से निकलें और लौट कर ही न आएं।
रिश्तेदारियों में भी अब दिक्कत होने लगी है। उनके समवयस्क ज़्यादातर रिश्तेदार दुनिया से विदा हो गये हैं और उन घरों में अब बहुओं का राज हो गया है। जिन घरों में बिना रोक-टोक के चले जाते थे वहां अब खांस-खूंस कर जाना पड़ता है। अगली पीढ़ी के लड़के मिलने पर सिर्फ औपचारिकता निभा कर खिसक लेते हैं।
हिम्मत भाई अब शिद्दत से महसूस करते हैं कि उनकी दुनिया छोटी हो रही है। जो चेहरे सामने आते हैं उनमें परिचित कम और अजनबी चेहरे ज़्यादा दिखायी पड़ते हैं।
हिम्मत भाई का लंबी उम्र पाने का गर्व धीरे धीरे छीज रहा है। समझ में आ रहा है कि अपनी बनायी हुई आत्मीय लोगों की दुनिया के बग़ैर जीवन का कोई अर्थ नहीं है। अपने जीने का अर्थ तभी है जब हमें प्रेम करने वाले भी जीवित और स्वस्थ रहें।
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈