डॉ. ऋचा शर्मा
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा ‘डबल पैसा ? ‘। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 147 ☆
☆ लघुकथा – डबल पैसा ? ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
“रिक्शावाले भइया! चौक चलोगे?”
“हां बिटिया! काहे न चलब”
“पैसा कितना लेबो?”
रिक्शावाले ने एक नजर हम दोनों पर डाली और बोला – “दुई सवारी है पैसा डबल लगी। रस्ता बहुत खराब है और चढ़ाई भी पड़त है। ”
“पैसा डबल काहे भइया! रास्ते में जहां चढ़ाई होगी हम दोनों रिक्शे से उतर जाएंगे”
“दो लोगन का खींचै में हमार मेहनत भी डबल लगी ना बिटिया!”
अदिति ने उसको मनाते हुए कहा- “अरे! चलो भइया हो जाएगा, थोड़ा ज्यादा पैसा ले लेना और दोनों जल्दी से रिक्शे में बैठ गईं। ”
रिक्शावाला सीट पर बैठकर रिक्शा चलाने लगा। चढ़ाई होती तो वह सीट से नीचे उतरकर एक हाथ से हैंडिल और एक से सीट को पकड़कर रिक्शा आगे खींचता। चढ़ाई आने पर हम रिक्शे से उतर भी गए फिर भी रिक्शावाला पसीने से तर-बतर हो बार- बार अँगोछे से पसीना पोंछ रहा था। पैडल पर रखे उसके पैर जीवन जीने के लिए भीड़, उबड़-खाबड- रास्तों और विरुद्ध हवा से जूझ रहे थे।
रिक्शावाले की बात मेरे दिमाग में घूमने लगी ‘डबल सवारी है तो पैसा डबल लगेगा’। बचपन से मैंने माँ को घर और ऑफिस की डबल ड्यूटी करते हुए चकरघिन्नी सा घूमते ही तो देखा है। दोनों के बीच तालमेल बिठाने के लिए वह जीवन भर दो नावों में पैर रखकर चलती रही। घर का काम निपटाकर ऑफिस जाती और वापस आने पर रात का खाना वगैरह न जाने कितने छोटे-मोटे काम—
निरंतर घूम रहे पैडल के साथ- साथ बचपन की यादों के न जाने कितनी पन्ने खुलने लगे। सुबह होते ही स्कूल के लिए भाग-दौड़ और शाम को हम दोनों का होमवर्क, स्कूल की यूनीफॉर्म, बैग तैयार करके रखना सब माँ के जिम्मे, साथ में पारिवारिक जीवन के उतार, चढ़ाव, तनाव—-। थोड़ी देर में ही मन अतीत की गलियों में गहरे विचर आया। स्त्रियों को उनकी इस डबल ड्यूटी के बदले क्या मिलता है ?
“बिटिया! आय गवा चौक बाजार, उतरें।”
“दीदी! उतरो नीचे किस सोच में डूब गई” – आस्था ने कहा
उसकी आवाज से मानों तंद्रा टूटी। मैंने रिक्शावाले के हाथ में बिना कुछ कहे दुगने पैसे रख दिए।
© डॉ. ऋचा शर्मा
प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001
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लाजवाब! चिंतन को प्रभावित कर गई!
क्या बात है, मैम !!! बहुत बढ़िया….