हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 7 – व्यंग्य – बिना पूँछ का जानवर ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  e-abhivyakti के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं । अब हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे।  आज प्रस्तुत है उनका व्यंग्य – “बिना पूँछ का जानवर ” जो निश्चित ही …….. ! अरे जनाब यदि मैं ही विवेचना कर दूँ  तो आपको पढ़ने में क्या मज़ा आएगा? इसलिए बिना समय गँवाए कृपा कर के पढ़ें, आनंद लें और कमेंट्स करना न भूलें । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 7 ☆

 

☆ व्यंग्य – बिना पूँछ का जानवर ☆

ज्ञानी जी के साथ मैं होटल की बेंच पर बैठा चाय पी रहा था।ज्ञानी जी हमेशा ज्ञान बघारते थे और मैं भक्तिभाव से उनकी बात सुनता था। इस समय उनकी नज़र सामने दीवार पर लगे पोस्टर पर थी। उसमें सुकंठी देवी के गायन की सूचना छपी थी। कार्यक्रम की तिथि आज ही की थी।

ज्ञानी जी ने पोस्टर पढ़कर मुझसे पूछा, ‘शास्त्रीय संगीत समझते हो?’

मैंने हीन भाव से उत्तर दिया, ‘न के बराबर, ज्ञानी जी!’

ज्ञानी जी विद्रूप में ओंठ टेढ़े करके बोले, ‘जानते हो? संगीत और कला के बिना आदमी बिना पूँछ का जानवर होता है!’

मैंने लज्जित होकर दाँत निकाल दिये।

वे बोले, ‘चलो, आज हम तुम्हें संगीत का ज्ञान देंगे। आज तुम इस कार्यक्रम की दो टिकट खरीदो।’

मैं राज़ी हो गया। कार्यक्रम शाम के सात बजे से था। मैं टिकट खरीदकर साढ़े छह बजे ज्ञानी जी के घर पहुँच गया। पता चला वे शौचालय में हैं। पन्द्रह मिनट बाद वे तौलिये से हाथ पोंछते हुए प्रकट हुए। उन्होंने दस मिनट और तैयार होने में लगाये । फिर हम निकल पड़े। रास्ते में भगत के पान के डिब्बे पर ज्ञानी जी रुके। एक पान मुँह में दबाया और चार बँधवा लिये । फिर मेरी तरफ मुड़ कर बोले, ‘पैसे चुका दो।’ मैंने चुपचाप पैसे चुका दिये क्योंकि यह सब मेरा संगीत-बोध जागृत करने के लिए किया जा रहा था।

ज्ञानी जी की ढीलढाल का नतीजा यह हुआ कि जब हम लोग हॉल में घुसे तब सुकंठी देवी का गायन शुरू हो चुका था। लोगों के घुटनों से टकराते हुए हम लोग अपनी सीटों पर पहुँच गये।

बैठते ही ज्ञानी जी बोले, ‘वाह,  भीम पलासी राग चल रहा है।’

उनकी बगल में बैठा चश्मेवाला आदमी तेज़ी से घूमकर बोला, ‘जी नहीं, केदार है।’

ज्ञानी जी का मुँह उतर गया। वे मेरी तरफ झुककर धीरे से बोले, ‘भीमपलासी को केदार भी कहते हैं।’

मैंने सिर हिला दिया।

जब सुकंठी देवी ने दूसरा आलाप लिया तब ज्ञानी जी बगल वाले आदमी को बचाकर मुझसे धीरे से बोले, ‘मालकोश राग का आलाप है।’

तभी आलाप खत्म करके सुकंठी देवी बोलीं, ‘अभी मैं आपको राग जैजैवन्ती सुना रही थी।’

ज्ञानी जी मेरी तरफ झुककर बोले, ‘दोनों में कोई खास फर्क नहीं है।’

गायन शुरू हो गया और ज्ञानी जी सिर हिला हिलाकर अपनी कुर्सी के हत्थे पर ताल देने लगे। तभी बगल वाला आदमी गुस्से में बोला, ‘गलत ताल मत दीजिए।’

ज्ञानी जी सिकुड़ गये। फिर मेरी तरफ झुककर बोले, ‘यह भी बिना पूँछ का जानवर है। कुछ जानता नहीं इसलिए मुझसे लड़ता है।’

मैंने फिर सिर हिलाया।

अब ज्ञानी जी शान्त होकर बैठे थे। थोड़ी देर बाद मैंने देखा, उनकी आँखें बन्द हो गयीं थीं और सिर छाती की तरफ झुक गया था। दो मिनट बाद उन्होंने आँखें खोलीं और मुझे अपनी ओर ताकता पाकर बोले, ‘यह मत समझना कि मैं सो रहा था। जब आदमी संगीत में पूरा डूब जाता है तो उसे अपनी खबर नहीं रहती।’

मैंने सिर हिलाया।

थोड़ी देर बाद पुनः उनकी आँखें बन्द हो गयीं और सिर छाती से टिक गया। इस बार उनकी नाक से बाकायदा शास्त्रीय संगीत के स्वर निकलने लगे। चश्मे वाला आदमी आग्नेय नेत्रों से उनकी तरफ देखने लगा। मैंने धीरे से उन्हें हिलाया। उन्होंने बड़ी मुश्किल से एक नेत्र खोला। मैंने कहा, ‘आप तो खर्राटे भर रहे हैं।’

वे हँसकर बोले, ‘यही तो तुम्हारी नासमझी है। जब मन संगीत से भर जाता है तो संगीत के समान स्वर शरीर से निकलने लगते हैं। जो तुम सुन रहे थे वह खर्राटे नहीं, सुकंठी देवी के संगीत की प्रतिध्वनि थी।’

मैं चुप हो गया।

थोड़ी देर बाद मैंने देखा, वे सो रहे थे और उनके ओठों के किनारे से लार बहकर उनके कुर्ते की सिंचाई कर रही थी। मैंने उन्हें फिर जगाया, कहा, ‘ज्ञानी जी! आपके मुँह से लार बह रही है।’

ज्ञानी जी के माथे पर बल पड़ गये । वे बोले, ‘नादान! जिसे तू लार समझता है वह वास्तव में संगीत-रस है। जब मन संगीत-रस से सराबोर हो जाता है तो थोड़ा-बहुत रस इसी तरह उबल कर बाहर निकल जाता है।’

मैं फिर चुप्पी साध गया।

और थोड़ी देर में कार्यक्रम समाप्त हो गया। सब लोग उठ-उठ कर बाहर जाने लगे। मैंने धीरे से उन्हें एक-दो बार उठाया लेकिन वे गहरी नींद में ग़र्क थे। आख़िरकार जब उन्हें ज़ोर से हिलाया तब उन्होंने नेत्र खोले।

अपने आसपास देखकर वे उठ खड़े हुए। अंगड़ाई लेकर बोले, ‘तो देखा श्रीमान, यही शास्त्रीय संगीत का रस,यानी उसका आनन्द होता है। इसी तरह मेरे साथ दो-चार बार सुनोगे तो बिना पूँछ के जानवर से इंसान बन जाओगे।’

 

©  डॉ. कुन्दन सिंह परिहार , जबलपुर (म. प्र. )
(लेखक के व्यंग्य-संग्रह ‘अन्तरात्मा का उपद्रव’ से)