श्री सुरेश पटवा
(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। आज से प्रत्यक शनिवार प्रस्तुत है यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा।)
यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-१२ ☆ श्री सुरेश पटवा
विरूपाक्ष मंदिर
बस से उतरकर सबसे पहले विरूपाक्ष मंदिर पहुंचे। विरुपाक्ष मंदिर खंडहरों के बीच बचा रह गया था। अभी भी यहाँ पूजा होती है। यह भगवान शिव को समर्पित है, जिन्हें यहां विरुपाक्ष-पम्पा पथी के नाम से जाना जाता है। शिव “विरुपाक्ष” के नाम से जाने जाते हैं। यह मंदिर तुंगभद्रा नदी के तट पर है। विरुपाक्ष अर्थात् विरूप अक्ष, विरूप का अर्थ है कोई रूप नहीं, और अक्ष का अर्थ है आंखें। इसका अर्थ हुआ बिना आँख वाली दृष्टि। जब आप थोड़ा और गहराई में जाते हैं, तो आप देखते हैं कि चेतना आँखों के बिना देख सकती है, त्वचा के बिना महसूस कर सकती है, जीभ के बिना स्वाद ले सकती है और कानों के बिना सुन सकती है। ऐसी चीजें गहरी ‘समाधि’ में सपनों की तरह ही घटित होने लगती हैं। चेतना अमूर्त है। आप पांच इंद्रियों में से किसी के भी बिना सपने देखते हैं; सूंघते हैं, चखते हैं, आप सब कुछ करते हैं ना? तो विरुपाक्ष वह चेतना है जिसकी आंखें तो हैं लेकिन मूर्त आकार नहीं है। समस्त ब्रह्मांड में शिव चेतना बिना किसी आकार के जड़ को चेतन करती है, जैसे बिजली दिखाई नहीं देती मगर पंखे को घुमाने लगती है। छठी इंद्रिय का अतीन्द्रिय अहसास ही विरूपाक्ष है। इंद्र की पाँच इन्द्रियों से परे छठी इन्द्रिय का मनोवैज्ञानिक सिद्धांत तो बहुत बाद उन्नीसवीं सदी में सिग्मंड फ्रॉड के अध्ययन के बाद आया। उसके बहुत पहले विरुपाक्ष चेतन शिव की मूर्ति बन चुकी थी।
विरूपाक्ष मंदिर का इतिहास लगभग 7वीं शताब्दी से अबाधित है। विरुपाक्ष मंदिर का निर्माण कल्याणी के चालुक्य शासक विक्रमादित्य-2 ने करवाया था जो इस वंश का सबसे प्रतापी शासक था। पुरातात्विक अध्ययन से इसे बारहवीं सदी के पूर्व का बताया गया है। विरुपाक्ष-पम्पा विजयनगर राजधानी के स्थित होने से बहुत पहले से अस्तित्व में था। शिव से संबंधित शिलालेख 9वीं और 10वीं शताब्दी के हैं। जो एक छोटे से मंदिर के रूप में शुरू हुआ वह विजयनगर शासकों के अधीन एक बड़े परिसर में बदल गया। साक्ष्य इंगित करते हैं कि चालुक्य और होयसल काल के अंत में मंदिर में कुछ अतिरिक्त निर्माण किए गए थे, हालांकि अधिकांश मंदिर भवनों का श्रेय विजयनगर काल को दिया जाता है। विशाल मंदिर भवन का निर्माण विजयनगर साम्राज्य के शासक देव राय द्वितीय के अधीन एक सरदार, लक्कना दंडेशा द्वारा किया गया था।
विजयनगर साम्राज्य के राजाओं ने समय-समय पर इस मंदिर का निर्माण और विस्तार किया। मंदिर के हॉल में संगीत, नृत्य, नाटक, और देवताओं के विवाह से जुड़े कार्यक्रम आयोजित होते थे। विरुपाक्ष मंदिर में शिव, पम्पा और दुर्गा मंदिरों के कुछ हिस्से 11वीं शताब्दी में मौजूद थे। इसका विस्तार विजयनगर युग के दौरान किया गया था। यह मंदिर छोटे मंदिरों का एक समूह है, एक नियमित रूप से रंगा हुआ, 160 फीट ऊंचा गोपुरम, अद्वैत वेदांत परंपरा के विद्यारण्य को समर्पित एक हिंदू मठ, एक पानी की टंकी, एक रसोई, अन्य स्मारक और 2,460 फीट लंबा खंडहर पत्थर से बनी दुकानों का बाजार, जिसके पूर्वी छोर पर एक नंदी मंदिर है।
विरुपाक्ष मंदिर को द्रविड़ शैली में बनाया गया है। द्रविड़ शैली के मंदिरों की कुछ प्रमुख विशेषताएं हैं कि ये मंदिर आमतौर पर आयताकार प्रांगण में बने होते हैं। इन मंदिरों का आधार वर्गाकार होता है और शिखर पिरामिडनुमा होता है। इन मंदिरों के शिखर के ऊपर स्तूपिका बनी होती है। इन मंदिरों के प्रवेश द्वार को गोपुरम कहते हैं। इस मंदिर की सबसे खास विशेषताओं में, इसे बनाने और सजाने के लिए गणितीय अवधारणाओं का उपयोग हुआ है। मंदिर का मुख्य आकार त्रिकोणीय है। जैसे ही आप मंदिर के शीर्ष को देखते हैं, पैटर्न विभाजित हो जाते हैं और खुद को दोहराते हैं। इस मंदिर की मुख्य विशेषता यहां का शिवलिंग है जो दक्षिण की ओर झुका हुआ है। इसी प्रकार यहां के पेड़ों की प्रकृति भी दक्षिण की ओर झुकने की है।
तुंगभद्रा नदी से उत्तर की ओर एक गोपुरम जिसे कनकगिरि गोपुर के नाम से जाना जाता है। हमने तुंगभद्रा नदी की तरफ़ से कनकगिरि गोपुर से मंदिर प्रांगण में प्रवेश किया। द्वार पर द्वारपालों की मूर्तियां हैं। मंदिर का मुख पूर्व की ओर है, जो शिव और पम्पा देवी मंदिरों के गर्भगृहों को सूर्योदय की ओर संरेखित करता हैं। एक बड़ा पिरामिडनुमा गोपुरम है। जिसमें खंभों वाली मंजिलें हैं जिनमें से प्रत्येक पर कामुक मूर्तियों सहित कलाकृतियां हैं। गोपुरम एक आयताकार प्रांगण की ओर जाता है जो एक अन्य छोटे गोपुरम में समाप्त होता है। इसके दक्षिण की ओर 100-स्तंभों वाला एक हॉल है जिसमें प्रत्येक स्तंभ के चारों तरफ हिंदू-संबंधित नक्काशी है। इस सार्वजनिक हॉल से जुड़ा एक सामुदायिक रसोईघर है, जो अन्य प्रमुख हम्पी मंदिरों में पाया जाता है। रसोई और भोजन कक्ष तक पानी पहुंचाने के लिए चट्टान में एक चैनल काटा गया है। छोटे गोपुरम के बाद के आंगन में दीपा-स्तंभ और नंदी हैं।
क्रमशः…
© श्री सुरेश पटवा
भोपाल, मध्य प्रदेश
*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈