डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम हृदयस्पर्शी कथा – ‘वजूद‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 276 ☆

☆ कथा-कहानी ☆ वजूद

नाम आर. एस. वर्मा, उम्र अड़सठ साल, डायबिटीज़ और उसके बाद दिल के रोगी। हैसियत —एक मध्यवर्गीय, पेंशनयाफ्ता, सामान्य आदमी। बच्चों में तीन लड़के और दो लड़कियां हैं, लेकिन वह फिलहाल पत्नी के साथ एक पुराने बेमरम्मत मकान में रहते हैं। अकेले क्यों रहते हैं और उनका इतिहास और संबंध-वृत कितना बड़ा है इस सब में जाने से कोई फायदा नहीं है। अब तो बस इतना महत्वपूर्ण है कि वह साढ़े पांच फुट जरबे दो फुट जरबे आठ इंच के चलते-फिरते इंसान हैं।

जिस दिन की बात कर रहा हूं उस दिन वर्मा जी बैंक के लिए निकले थे। बैंक बहुत दूर नहीं था, लेकिन शहर में दूरियां बड़ी होती हैं और कमज़ोर, बीमार आदमी के लिए वे और भी बड़ी हो जाती हैं। आदमी की पैदल चलने की आदत भी अब पहले जैसी नहीं रही। इसलिए वर्मा जी रिक्शे में गये और बैंक का काम निपटाया।

लौटते में रिक्शे वालों से पूछा तो लगा किराया ज़्यादा मांग रहे हैं। बैंक से थोड़ा आगे पुल था। सोचा पुल उतर लें तो किराया कम लगेगा। पैदल चल दिये। अब तक दोपहर हो गयी थी और सूरज ऐन उनके सिर पर चमकने लगा था। पुल चढ़ते-चढ़ते ही सामने के दृश्य अस्पष्ट और अजीब होने लगे। चलने में संतुलन गड़बड़ाने लगा तो उन्होंने पुल की दीवार का सहारा लिया। फुटपाथ को थोड़ा उठा दिया गया था, इसलिए वाहनों से कुचले जाने का भय नहीं था। लेकिन वह ज़्यादा देर तक खड़े नहीं रह सके। उनके पांव धीरे-धीरे खिसकने लगे और जल्दी ही  वह दीवार से टिके, बैठने की मुद्रा में आ गये। उनका सिर उनकी छाती पर झुका हुआ था और आंखें बन्द थीं।

आर. एस. वर्मा का इस तरह बीमार होकर बैठ जाना गंभीर और महत्वपूर्ण घटना थी। वह कभी एक सरकारी मुलाज़िम रहे थे और बत्तीस साल तक अपनी कुर्सी पर बैठकर उन्होंने अनेक मामले निपटाये थे। दफ्तर में अनेक लोगों से उनके नज़दीकी रिश्ते रहे थे। वह किसी के पिता, किसी के पति, किसी के भाई, किसी के दादा, किसी के नाना, बहुतों के रिश्तेदार और परिचित थे। लेकिन फिलहाल इन सब बातों का कोई महत्व नहीं था क्योंकि वह भीड़भाड़ वाले उस पुल की दीवार से टिके साढ़े पांच फुट जरबे दो फुट जरबे आठ इंच के बेनाम शख्स थे।

पुल पर लोगों का सैलाब गुज़र रहा था। साइकिल वाले, स्कूटर वाले, मोटर वाले, रिक्शे वाले और पैदल लोग। ज़्यादातर लोगों की नज़रें चाहे अनचाहे इस बैठे हुए लाचार इंसान पर पड़ती थीं, लेकिन सभी उस तरफ से नज़रें फेर कर फिर सामने की तरफ देखने लगते थे। एक तो इस तरह के दृश्य इतने आम हो गये हैं कि आदमी उन्हें देखकर ज़्यादा विचलित नहीं होता, दूसरे सभी को कोई न कोई काम था और उनके पास एक अजनबी बीमार की परिचर्या का समय नहीं था। तीसरे यह कि एक मरणासन्न दिख रहे आदमी के पास जाकर पुलिस के पचड़े में कौन पड़े।

लाचार आर.एस. वर्मा वैसे ही पड़े रहे और वक्त गुज़रता गया। लेकिन यह सीमित दायरे में पड़ा शरीर वस्तुतः उतना सीमित नहीं था जितना आप समझ रहे हैं। उनके शरीर से स्मृति- तरंगें निकलकर सैकड़ो मीलों के दायरे में एक विशाल ताना-बाना बुन रही थीं।

पहले दिमाग़ में एक दृश्य आया जब वे और बड़े भैया आठ दस साल की उम्र के थे और अपने नाना के गांव गये थे। नाना ज़मींदार थे और हर साल रामलीला कराते थे। उन्हीं के भंडार- गृह से धनुष-बाण निकालकर दोनों भाई खेलने लगे। बड़े भैया ने उनकी तरफ तीर साधा और अचानक वह उनकी पकड़ से छूटकर वर्मा जी की आंख में आ लगा। नाना, नानी, मां सब भागे आये और बड़े भैया की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी। सौभाग्य से पुतली बच गयी थी, इसलिए इलाज से आंख बच गयी। वे दृश्य आज उनकी आंखों के सामने साफ-साफ घूम रहे थे।

जीजी के ब्याह का दृश्य सामने आ गया। मां और बाबूजी विदा के वक्त कितने दुखी थे। वर्मा जी के लिए विछोह का यह पहला अनुभव था। पहली बार यह महसूस करना कि अब जीजी पहले की तरह इस घर में कभी नहीं रह पाएंगीं। जीजाजी तब कैसे तगड़े, समर्थ दिखते थे।

स्मृति कॉलेज और हॉस्टल के दिनों की तरफ घूम गयी। एकाएक दोस्त सआदत का चेहरा उभर आया। कैसा अजीब इंसान था। उसने भांप लिया था कि वर्मा जी की माली हालत ठीक नहीं है, इसलिए जब अपने लिए कपड़े सिलवाता तो दो जोड़ी सिलवाता और उन्हें ज़बरदस्ती पहनाता। दोनों का नाप एक ही था।

वह दृश्य जब वे अपने जूतों में पॉलिश करने के लिए बैठते थे और उनके कमरे के और बगल के कमरे के सब साथी अपने-अपने जूते उनके सामने पटक जाते। मेस में थालियों के सामने बैठकर कोलाहल करते साथी और उनके बीच पसीना बहाते घूमते ठेकेदार पंडित जी। एक पूरी रील उनकी आंखों के सामने चल रही थी। जैसे कोई उपग्रह था जिसकी तरंगें कई स्थानों को एक साथ छू रही थीं।

फिर मंडप में अपनी शादी का दृश्य सामने आ गया। पहली बार पत्नी का हाथ हाथ में आया तो उनके शरीर में बिजली सी दौड़ गयी थी। किसी लड़की को ‘उस तरह’ से छूने का उनका वह  पहला अनुभव था।

फिर पैतृक मकान के बंटवारे पर तमतमाया बड़े भैया का चेहरा उभरा। पास ही बांहों में सिर देकर रोती मां।

फिर बड़े बेटे वीरेन्द्र का चालाक चेहरा सामने आ गया। उनकी ग्रेच्युटी मिलने के बाद उसने दस बहाने लेकर उनके चक्कर काटने शुरू कर दिये थे। उसे अपने लिए अलग मकान बनाना था। उसकी देखादेखी अपनी अपनी मांग रखते महेन्द्र और देवेन्द्र कि यदि बड़े भाई को पैसे दिए जाएं तो उन्हें भी क्यों नहीं? फिर पैसे न मिलने पर क्रोध से विकृत वीरेन्द्र का चेहरा। फिर बेटों के अलग हो जाने से व्यथित पत्नी का उदास चेहरा।

तीन घंटे बाद उधर से गुज़रने वालों ने देखा कि पुल से टिका यह आदमी बायीं तरफ को झुक कर अधलेटा हो गया था। यह कोई भी समझ सकता था कि तीन घंटे तेज़ धूप के नीचे लावारिस हालत में पड़े रहने से इस आदमी की हालत और बिगड़ी थी। शायद अब भी वर्मा जी को बचाया जा सकता था, लेकिन अभी तक उनके पास कोई रुका नहीं था।

वर्मा जी के दिमाग़ के दृश्य अब अस्पष्ट और तेज़ हो गये थे। दृश्यों की रील अनियंत्रित, अव्यवस्थित दौड़ी जा रही थी। मां, बाबूजी, पत्नी, पुत्रों, पुत्रियों, दोस्तों के चेहरे गड्डमड्ड हो रहे थे। अब उन चेहरों से अपना संबंध जोड़ना उनके लिए मुश्किल हो रहा था। चेहरे उभरते थे और हंसते, मुस्कुराते या रोते, उदास विलीन  हो जाते थे। कहीं से आवाज़ें उठ रही थीं, कभी मां की, कभी बाबूजी की, कभी पत्नी की। फिर सब कुछ धुंधला होने लगा और आवाज़ें दूर और दूर जाते जाते हल्की होने लगीं।

वर्मा जी का सिर अब ज़मीन पर टिका था और शरीर में जीवन का कोई चिह्न दिखायी नहीं देता था। स्मृति-तरंगों का विशाल जाल सिमट कर उनके शरीर में लुप्त हो गया था। उपग्रह से तरंगों का प्रवाह रुक गया था। अब सचमुच वर्मा जी का वजूद सिर्फ साढ़े पांच फुट जरबे दो फुट जरबे आठ इंच क्षेत्र तक सीमित हो गया था।

दूसरे दिन वर्मा जी का शरीर वहां नहीं था। शायद उनकी पत्नी को खबर मिली हो और वह उन्हें उठवा ले गयी हों, या कोई पड़ोसी उन्हें पहचान कर उन्हें ले गया हो, या फिर कोई भला आदमी उन्हें उस हालत में देखकर किसी डॉक्टर के पास ले गया हो। अन्तिम संभावना यह हो सकती है कि पुलिस उस लावारिस लाश को ले गयी हो और कल के अखबारों में उसके बारे में संबंधियों को सूचित करने के लिए फोटो सहित खबर छपे। जो भी हो, वर्मा जी का वजूद अब उतना ही था जितने वह दिखायी देते थे।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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