श्री संजय भारद्वाज
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।
श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 4 ☆
☆ मैराथन ☆
मैं यह काम करना चाहता था पर उसने अड़ंगा लगा दिया।…मैं वह काम करना चाहती थी पर इसने टांग अड़ा दी।…उसमें है ही क्या, उससे बेहतर तो इसे मैं करता पर मेरी स्थितियों के चलते..!! ….अलां ने मेरे खिलाफ ये किया, फलां ने मेरे विरोध में यह किया…।
स्वयं को अधिक सक्षम, अधिक स्पर्द्धात्मक बनानेे का कोई प्रयास न करना, आत्मावलोकन न कर व्यक्तियों या स्थितियों को दोष देना, हताशाग्रस्त जीवन जीनेवालों से भरी पड़ी है दुनिया।
वस्तुतः जीवन मैराथन है। अपनी दौड़ खुद लगानी होती है। रास्ते, आयोजक, प्रतिभागी, मौसम किसी को भी दोष देकर पूरी नहीं होती मैराथन।
कवि निदा फाज़ली ने लिखा है,‘रास्ते को भी दोष दे, आँखें भी कर लाल/ चप्पल में जो कील है, पहले उसे निकाल।’
अधिकांश लोग जीवन भर ये कील नहीं निकाल पाते। कील की चुभन पीड़ा देती है। दौड़ना तो दूर, चलना भी दूभर हो जाता है।
जिस किसीने यह कील निकाल ली, वह दौड़ने लगा। हार-जीत का निर्णय तो रेफरी करेगा पर दौड़ने से ऊर्जा का प्रवाह तो शुरू हुआ।
प्रवाह का आनंद लेने के लिए इसे पढ़ने या सुनने भर से कुछ नहीं होगा। इसे अपनाना होगा।
उम्मीद करता हूँ अपनी-अपनी चप्पल सबके हाथ में है और कील के निष्कासन की कार्यवाही शुरू हो चुकी है।
© संजय भारद्वाज , पुणे
कील का निष्कासन…आत्मावलोकन…
मन को मनुष्य साध सके तो संसार का रूप ही बदल जाए. स्वयं सेआरंभ करें , सही बात!
धन्यवाद वीनु जी।
बहुत खूब!!
सच है मनुष्य को शिकायत करने और दोषारोपण की आदत है।
अपनी चप्पल की कील निकाली जाने की आदत ही नहीं ।
शायद साहस नहीं, आत्मावलोकन का अभाव!
धन्यवाद ऋता जी।
धन्यवाद वीनु जी।
आत्मनिरीक्षण ही उत्तम मार्ग है। इस बात को आपने मैराथन के जरिए जो उजागर किया कि पढ़ते समय ही हम अपना आत्मनिरीक्षण करने लग गए।सुंदर चिंतन
धन्यवाद भारती जी।
संजय जी आपके लेख आइना दिखाते हैं वाचक आत्मपरिक्षण करने पर मजबूर हो जाता है
विजया टेकसिंगानी
धन्यवाद विजया जी।
ज़िंदगी की दौड़ को मैराथन के प्रतीक के माध्यम से आलेख में बेहतरीन दिखाया है़ विचारोत्तेजक सृजन
संजय जी साधुवाद…मैराथन को लेकर यह विचार गजब है। हमारे आसपास के छोटे-छोटे उदाहरणों को आप सीधे जीवन से जोड़ते हैं तो उन तमाम चीज़ों की ओर देखने का दृष्टिकोण ही बदल जाता है। संजय उवाच की प्रतीक्षा रहती है…बहुत शुभकामनाएँ
धन्यवाद स्वरांगी।
जीवन की दौड़ में, कील की चुभन से मुक्त होने के लिए आत्मावलोकन अतिआवश्यक है । बहुत सुन्दर चिन्तन!!???
धन्यवाद डॉ. मंजुला।
धन्यवाद ऋता जी।