सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा
(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी कविता “टुकड़े शाम के ”। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 36☆
हवाएं ज़ोरों से सायें-सायें करती हुई आयीं
और चली गयीं शाम के टुकड़े करती हुई –
उनके जाने के बाद हर तरफ फिर से
ऐसी शान्ति छा गयी जैसे कुछ हुआ ही न हो!
नहीं देखे गए मेरी भावुक नज़रों से
शाम के वो अनगिनत टुकड़े
और बीनने लगी मैं उन्हें
अपनी छोटी और नाज़ुक उँगलियों से-
पर वो टुकड़े तो किसी पैने कांच के टुकड़ों की तरह थे,
बहने लगी मेरी उँगलियों से रक्त की धारा अविरल
और मैं भी हताश होकर बैठ गयी…
जब दर्द की पीड़ा से निकलकर
मेरा मन कुछ और सोचने के काबिल हुआ
तब कहीं जाकर यह विचार कौंधा,
“क्या पहले नहीं हुए कभी
शाम के इस कदर टुकड़े?
माना कि यह ज़्यादा पैने थे,
पर ऐसे टुकड़ों को जोड़कर
अगली शाम हरदम फिर आई थी ख़ुशी का पैग़ाम लिए…
अगली सुबह के इंतज़ार में
बहते रक्त के बावजूद, मैं हौले से मुस्कुरा उठी-
मुझे पूरा भरोसा था
कि इतनी जुस्तजू भर दूँगी मैं
आफताब के सीने में
कि अगली शाम जब आएगी
तो वो होगी खुशनुमा और मुकम्मल!
© नीलम सक्सेना चंद्रा
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