डॉ कुंदन सिंह परिहार
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम व्यंग्य – ‘एक नेक काम‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 279 ☆
☆ व्यंग्य ☆ ये प्रभु और वे प्रभु ☆
चपरासी ने लांबा साहब को सूचना दी कि बाहर छेदी बाबू आये हैं। साहब बाहर आये तो देखा छेदी बाबू दरवाज़े पर माथा धरे दंडवत लेटे हैं। साहब घबराए कि कहीं बेहोश होकर गिर तो नहीं गये। तभी छेदी बाबू हाथ जोड़े उठकर खड़े हो गये।
साहब ने अन्दर बुलाते हुए कहा, ‘यह क्या है छेदी बाबू ?’
छेदी बाबू बोले, ‘कुछ नहीं है सर। आपके घर को प्रणाम कर रहा था। अभी बताता हूं सर।’
फिर बैठ कर बोले, ‘असल में हुआ क्या, सर, कि परसों गांव से पिताजी आ गये। पूछने लगे कि कभी साहब के बंगले पर गये या नहीं। मैंने कहा मैं तो एक बार भी नहीं गया। उन्होंने, सर, मुझे बहुत डांटा। एकदम डायरेक्ट गधा कहा, सर। कहने लगे कि अपना दफ्तर और अपने साहब का बंगला मन्दिर के समान होते हैं। वहां जाकर प्रणाम करना चाहिए। मैंने भी सोचा कि मैं सचमुच गधा हूं जो इस बात को नहीं समझ पाया। ये एक पाव पेड़े लाया हूं,ग्रहण कर लीजिए सर।’
साहब ने पूछा, ‘ये किस लिए?’
छेदीलाल बोले, ‘मन्दिर में पहली बार आया हूं। खाली हाथ नहीं आना चाहिए।’
साहब ने पूछा, ‘कोई काम है?’
छेदीलाल बोले, ‘अरे राम राम। काहे का काम? मन्दिर जाने में कौन सा काम सर? बस, श्रद्धा हुई और आगये। आप हमारा पेट पालते हैं सर, और पेट पालने वाला भगवान का रूप होता है।’
साहब बोले, ‘पेट पालने के लिए पैसा तो सरकार देती है।’
छेदीलाल बोले, ‘सर, सरकार तो दिल्ली में बैठी है। हमारे भगवान तो आप ही हैं। पुराने जमाने में सरकार दिल्ली में बैठी रहती थी, लेकिन रिआया का लालन-पालन तो जमींदार ही करता था।’
फिर छेदी बाबू ने पूछा, ‘सर, मेरी भाभी जी नहीं दिख रही हैं। उनके आज तक दर्शन नहीं किये। उन्हें भी प्रणाम कर लेता तो यहां आना सफल हो जाता।’
साहब ने पत्नी को बाहर बुलाया। छेदीलाल ने उन्हें देखा तो जुड़े हुए हाथ माथे पर लगाकर ज़मीन तक झुक गये। बोले, ‘वाह, एकदम देवी का रूप हैं। भगवती हैं। प्रणाम स्वीकार कीजिए, भाभी जी। मैं आपका सेवक छेदीलाल। साहब के दफ्तर का छोटा सा कर्मचारी।’
मिसेज़ लांबा कुछ प्रसन्न हुईं,बोलीं, ‘बैठिए, चाय पीकर जाइएगा।’
छेदीलाल हाथ जोड़कर बोले, ‘जरूर। भला देवी की आज्ञा कैसे टाल सकता हूं।’
मिसेज़ लांबा भीतर गयीं तो छेदीलाल बोले, ‘दर्शन करके जी जुड़ा गया सर। एकदम भगवती स्वरूपा हैं। सर, मेरे घर में एक लक्ष्मी जी का कलेंडर है। हूबहू वही रूप है। कभी मेरी कुटिया में चरणधूल दें तो आप खुद देख लें।’
चाय आयी तो छेदीलाल चुस्की लेकर बोले, ‘वाह, एकदम अमृत है। लगता है भगवती ने खुद अपने हाथों से बनायी है।’
एक हफ्ते बाद ही साहब को फिर सूचना मिली कि छेदीलाल आये हैं। बाहर निकले तो देखा कि वह पहले दिन की तरह ही लट्ठे की माफिक उल्टे पड़े हैं। साहब को देखकर हाथ जोड़कर खड़े हुए। साहब ने उस दिन बरामदे में ही बैठाया।
छेदीलाल हाथ जोड़कर बोले, ‘सर, उस दिन से बस ऐसा लगता है जैसे कोई मुझे इधर को खींच रहा हो। अब मन्दिर वन्दिर जाने का मन नहीं होता। इधर ही मन खिंचता है। आपके दर्शन दफ्तर में हो जाते हैं, लेकिन भगवती के दर्शन के बिना मन व्याकुल रहता है, सर।’
लांबा साहब आज उनसे जल्दी मुक्ति चाहते थे। बोले, ‘और कोई काम? मुझे ज़रा बाहर जाना है।’
छेदीलाल बोले, ‘काम क्या सर! प्रभु से क्या काम? प्रभु तो अंतरयामी होते हैं। भक्त के मन की सब बात जानते हैं।’
फिर गंभीर मुद्रा बनाकर बोले, ‘एक बहुत मामूली सा निवेदन जरूर था, सर। बहुत दिनों से सोच रहा था कि कहूं या न कहूं। फिर सोचा प्रभु से कैसा संकोच!
‘सर, एक महीने बाद सुपरिंटेंडेंट साहब रिटायर हो रहे हैं। उस स्थान पर अगर सेवक का प्रमोशन हो जाता तो जीवन भर आपके गुन गाता।’
लांबा साहब के भीतर का अफसर जागृत हुआ। बोले, ‘लेकिन आप तो अभी बहुत जूनियर हैं। आपसे सीनियर तो तीन-चार लोग बैठे हैं। अभी तो उपाध्याय जी सबसे सीनियर हैं।’
छेदीलाल बोले, ‘सर, आप भी मेरे जैसे छोटे आदमी के साथ मजाक करते हैं। आपके लिए क्या मुश्किल है? जो आप कर देंगे वही होगा। सीनियर सुपरसीड हो जाता है और जूनियर ऊपर पहुंच जाते हैं। गोस्वामी जी ने कहा है, समरथ को नहिं दोस गुसाईं। आपकी कलम को कौन काट सकता है सर?
‘मैं तो किसी की बुराई करना पाप समझता हूं, सर, लेकिन यह तो कहना ही पड़ेगा कि उपाध्याय बाबू इस पोस्ट के लिए बिलकुल फिट नहीं हैं। ऑफिस कंट्रोल करना कोई मामूली काम है क्या सर? दिन भर तो कुर्सी पर बैठे सोते हैं, ऑफिस क्या कंट्रोल करेंगे। वे सुपरिंटेंडेंट बन गये तो ऑफिस का भट्ठा बैठ जाएगा। आप तो योग्यता देखिए, सर, सीनियारिटी को गोली मारिए।’
लांबा जी बोले, ‘हमारे पास तो रिपोर्ट है कि आप भी ऑफिस में सोते हैं।’
छेदीलाल चिहुंक पड़े, बोले, ‘कैसी बातें करते हैं, सर! आपको एकदम गलत रिपोर्ट दी गयी है। जरूर मेरे दुश्मनों का काम होगा। सर, बात यह है कि जैसा आपने देखा, मैं धार्मिक किस्म का आदमी हूं। बीच-बीच में आंखें बन्द करके हरि- स्मरण कर लेता हूं। उसी को मेरे दुश्मन गलत ढंग से प्रचारित करते हैं।’
लांबा साहब बोले, ‘खैर, मैं देखूंगा। आप अब कुछ दिन तक यहां मत आइएगा, नहीं तो लोग कहेंगे कि अपनी सिफारिश करने आते हैं।’
छेदीलाल बोले, ‘समझ गया, सर। बिल्कुल नहीं आऊंगा। भगवती के दर्शन किये बिना चैन तो नहीं पड़ेगा, लेकिन फिर भी आपके आदेश को मानूंगा।
‘लेकिन मेरी विनती पर ध्यान दीजिएगा, सर। आप सर्वशक्तिमान हैं, करुणानिधान हैं।आपके चेहरे पर जो करुणा बिराजती है उससे मुझे लगता है कि मुझे निराश नहीं होना पड़ेगा। सेंट परसेंट सफलता मिलेगी।’
कुछ दिनों बाद आदेश निकल गया। उपाध्याय जी सुपरिंटेंडेंट हो गये ।
छेदीलाल ने सुना तो बगल की मेज वाले लखेरा बाबू से कहा, ‘जब अफसर में दम- खम नहीं होगा तो यही होगा। गधे-घोड़े में फर्क करने की तमीज भी तो होनी चाहिए।’
फिर उठकर उपाध्याय जी के पास गये। दांत निकाल कर बोले, ‘बहुत-बहुत बधाई। हम तो भाई बड़े खुश हुए। बिलकुल सही प्रमोशन हुआ। हमें एक दिन साहब के घर जाने का मौका मिला तो हमने कहा सर, सीनियारिटी की बात छोड़िए, उपाध्याय बाबू योग्यता में भी किससे कम हैं? आंख मूंद कर उनका प्रमोशन कर दीजिए।’
इसके कुछ दिन बाद ही छेदीलाल को बाज़ार में एक दुकान से निकलती मिसेज़ लांबा दिख गयीं। वे तुरन्त दूसरी दुकान में घुस गये।
घर लौटे तो पत्नी से बोले, ‘आज बाजार में वह लांबा साहब की लांबाइन दिख गयी। ऐसी कि सबेरे सबेरे देख लो तो दिनभर खाना नसीब न हो। जैसा साहब, वैसी ही उसकी बीवी। राम मिलायी जोड़ी।’
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈
अति उत्तम। आनंद आ गया।
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