श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 340 ☆
लघुकथा – जंतर-मंतर…
श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
पुराने समय की बात है। इंद्रप्रस्थ राज्य में एक खुले क्षेत्र में एक ऋषि तपस्या कर रहे थे। वे एक मंत्र पढ़ते, मंत्र सिद्ध होते ही देवता प्रगट होते ऋषि उनसे वरदान मांगते, और तुरंत अगले मंत्र की सिद्धि के लिए तप करने में जुट जाते। फिर अनवरत तप यज्ञ साधना करते, मंत्र सिद्ध करते, वरदान पाते पर बजाए अपनी सिद्धियों के उपभोग के वे असंतोष के साथ फिर नए तप में जुट जाते। नारद जी ने उनका यह विचित्र कृत्य देखा, तो प्रभु से जा कहा। प्रभु मुस्काए, उन्होंने कहा हे नारद आप चिंता न करें। यह मुनि की नहीं उस स्थल की प्रवृति है, जहां ये ऋषि तपस्या कर रहे हैं।
प्रभु ने कहा हे नारद कालांतर में यह क्षेत्र दिल्ली का जंतर मंतर कहलाएगा। यहां आने वाले हर व्रती को उसके आंदोलन के तनाव से मुक्ति मिलेगी।
भारत खण्ड में यह स्थल संसद के निकट है। अब जंतर मंतर अर्थात हर लोकतांत्रिक पीड़ा से छुटकारा पाने का स्थान। किसी डाक्टर के केबिन की तरह जंतर मंतर में देश के कोने कोने से आए आंदोलन जीवी, अंततोगत्वा विसर्जित होते हैं। हर पार्टी, हर संगठन, हर आंदोलन का सेफ्टी वाल्व यहीं खुलता है। मांग पत्र, ज्ञापन, पुलिस, लाठी चार्ज, बरसों से भीड़ की सफलता या असफलता का गवाह बना हुआ है दिल्ली का जंतर मंतर।
ऋषियों की तपस्या की जगह अब यहां आंदोलन जीवी सत्ता के विरोध में अपना कोप भाषणों के माध्यम से उत्सर्जित करते हैं। उनका आंदोलन सिद्ध हो या न हो, फल प्राप्ति हो या न हो,राजा दशरथ के महल के कोप भवन के समानांतर देश की आम जनता का कोप विसर्जित करने वाला स्थान जंतर मंतर ही है।
ये अलग बात है कि यहां सिद्ध किए गए फल का उपभोग किए बिना ही असंतुष्टि के साथ अगले आंदोलन में जुट जाना, नियति है।
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© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार
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