श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 45 – लॉकडाउन और मैं ☆

समाचारपत्रों में कभी-कभार पढ़ता था कि फलां विभाग में  पेनडाउन आंदोलन हुआ। लेखक होने के नाते  ‘पेनडाउन’ शब्द कभी नहीं भाया। फिर नॉकडाउन से परिचय हुआ। मुक्केबाजी से सम्बंधित समाचारों ने सबसे पहले नॉकआउट शब्द से परिचय कराया।कारोबार के समाचारों ने लॉकआउट का अर्थ समझाया। फिर आया लॉकडाउन। यह शब्द अपरिचित नहीं था पर पिछले लगभग एक माह ने इससे चिरपरिचित जैसा रिश्ता जोड़ दिया है।

जब आप किसी निर्णय को मन से स्वीकार करते हैं तो भाव उसके अनुपालन के अनुकूल होने लगता है। इस अनुकूलता का विज्ञान के अनुकूलन अर्थात परिस्थिति के अनुरूप ढलने के सिद्धांत से मैत्री संबंध है।

इस संबंध को मैंने भ्रमण या पैदल चलने के अभ्यास में अनुभव किया। सामान्यत: मैं सुबह 3 से 3.5 किलोमीटर भ्रमण करता हूँ। इस भ्रमण के अनियमित हो जाने पर पूर्ति करने या लंबी दूरी तय करने का मन होने पर अथवा प्राय: अन्यमनस्क होने पर देर शाम 8 से 10 किलोमीटर की पदयात्रा करता हूँ। चलने के आदी पैर लॉकडाउन के कारण अनमने रहने लगे तो परिस्थिति के अनुरूप मार्ग भी निकल आया। एक कमरे की बालकनी के एक सिरे से दूसरे कमरे की बालकनी के सिरे के बीच तैंतीस फीट के दायरे में पैरों ने तीन किलोमीटर रोजाना की यात्रा सीख ली।

पहले विचार किया था कि लेखन में बहुत कुछ छूटा हुआ है जो इस कालावधि में पूरा करूँगा। बहुत जल्दी यह समझ में आ गया कि नई  गतिविधि का अभाव मेरे लेखन की गति को प्रभावित कर रहा है।  यद्यपि दैनिक लेखन अबाधित है तथापि अपने भीतर जानता हूँ कि जैसे कुछ कार्यालयों में पच्चीस प्रतिशत कर्मचारियों के साथ ही काम हो रहा है, मेरी कलम भी एक चौथाई क्षमता से ही चल रही है। बकौल अपनी कविता,

घर पर ही हो,

कुछ नहीं घटता

कुछ करना भी नहीं पड़ता

इन दिनों..,

बस यही अवसर है

खूब लिखा करो,

क्या बताऊँ

लेखन का सूत्र

कैसे समझाऊँ,

साँस लेना ज़रूरी है

जीने के लिए..,

घटना और कुछ करना

अनिवार्य हैं लिखने के लिए!

अलबत्ता समय का सदुपयोग करने की दृष्टि से सृजनात्मक लेखन का मन न होने पर प्रकाशनार्थ पुस्तकों का प्रूफ देखना, पुस्तकों का अलाइनमेंट या सुसंगति निर्धारित करना जैसे काम चल रहे हैं। पुस्तकों की भूमिका लिखने का काम भी हो रहा है। निजी लेखन की फाइलें भी डेस्कटॉप पर अलग सेव करता जा रहा हूँ।

लॉकडाउन के इस समय में प्रकृति को निहारने का सुखद अनुभव हो रहा है। सूर्योदय के समय खगों की चहचहाट, सूर्यास्त का गरिमामय अवसान दर्शाता स्वर्णिम दृश्य, सामने के पेड़ पर रहनेवाले तोतों और चिड़िया के समूहों का शाम को घर लौटना, कौवों का अपने घोंसले की रक्षा करना, ततैया का पानी पीने आना, पानी पीते कबूतरों का भयभीत होकर भागने के बजाय शांत मन से तृप्त होने तक जल ग्रहण करना, सब साकार होने लगा है।

संभवत: साढ़े तीन दशक बाद कोई सीरियल देखने की आदत बनी। पिछले दिनों ‘रामायण’ का प्रसारण नियमित रूप से देखा। रावण ने अपने अहंकार के चलते सम्पूर्ण असुर जाति का अस्तित्व दांव पर लगा दिया था। लॉकडाउन में अनावश्यक रूप से बाहर घूमनेवाले अति आत्मविश्वास और लापरवाही के चलते मनुष्य जाति के लिए वही भूमिका दोहरा रहे हैं।

हर क्षण जीवन बीत रहा है। इसलिए अपने  समय का बेहतर उपयोग करने के लिए सर्वदा कुछ नया और सार्थक सीखना चाहिए। ख़ासतौर पर उन विषयों का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए, जिनसे  अबतक अनजान हों या जिनमें प्रवीणता नहीं है।

पाकशास्त्र में प्रवीणता दीर्घ कालावधि और सम्पूर्ण समर्पण से मिलती है। दोनों आवश्यकताएँ पूरी करने में अपनी असमर्थता का भलीभाँति ज्ञान होने के कारण रसोई बनाने के सामान्य ज्ञान पर ध्यान केंद्रित कर रहा हूँ। अपने काम के सिलसिले में घर से बाहर    काफी दिन रुकना पड़े तो होटल से मंगाने के बजाय अपना भोजन स्वयं सरलता से बना सकूँ, कम से कम इतना सीख लेना चाहता हूँ। मनुष्य को यों भी यथासंभव स्वावलंबी होना चाहिए।  लॉकडाउन इसका एक अवसर है।

लॉकडाउन की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका यह है कि यह रोग को फैलने से रोकने के लिए सामाजिक वैक्सिन है। मेडिकल वैक्सिन आने में लगभग आठ से दस माह की अवधि लग सकती है। ऐसे में लॉकडाउन और सामाजिक- भौतिक दूरी, रोग और वैक्सिन के बीच हमें सुरक्षित रख सकती है। अत: आप सबसे भी अनुरोध है कि घर में रहें, सुरक्षित रहें, स्वस्थ रहें।

 

©  संजय भारद्वाज

संध्या 7:50 बजे, 21.4.2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

image_print
0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

5 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments
माया कटारा

लाॅकडाउन और मैं – सूत्रधार को सूत्र की तलाश होना स्वाभाविक है और सूत्र प्राप्ति के लिए कुछ घटित होना – अत्यंत विचारोत्तेजक पोस्ट -रचनाकार है तो धर में पर अपने आपमें संपूर्ण विश्व की पीड़ा को समाए हुए , व्यष्टि में समष्टि की अवधारणा स्तुत्य है — अभिनंदन

Sanjay k Bhardwaj

विस्तृत प्रतिक्रिया हेतु आपका आभार।

Rita Singh

जब आप किसी निर्णय को मन से स्वीकार करते हैं तो भाव उसके अनुपालन के अनुकूल होने लगता है।यही स्तरीय है।आज लॉकडाउन की स्थिति का सामना हर कोई इसी भाव के कारण कर पा रहा है।

Sanjay k Bhardwaj

विस्तृत प्रतिक्रिया हेतु आपका आभार।

अलका अग्रवाल

आज की परिस्थिति में जबकि मनुष्य घर के अंदर बंद है, ऐसे में मस्तिष्क को जुगाली करने के लिए किसी घटना या परिस्थिति का होना आवश्यक है तभी वह कुछ लिख सकता है।??