आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि। संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक कविता – अपराजिता।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 227 ☆
☆ अपराजिता ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆
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ओ मेरी अपराजिता! तुमको पा जग-जयी मैं
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जड़ माटी में जमाकर
हुईं अंकुरित-पल्लवित।
धूप-छाँव हँसकर सहे-
हँस भव-बाधा की विजित।
ओ मेरी अपराजिता! तुमको पा निर्भयी मैं
.
श्वेत-नील छवि मुग्धकर
सुख देती; दुख दग्ध कर।
मुस्कातीं मन मोहतीं-
बाँहों में आबद्ध कर।
ओ मेरी अपराजिता! तुमको पा तन्मयी मैं
.
हरि-भरी आशा-लता
हर लेती हर आपदा।
धनी न मुझ सा अन्य है-
तुम मम अक्षय संपदा।
ओ मेरी अपराजिता! तुमको पा सुहृदयी मैं
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© आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
१५.३. २०२५
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