श्रीमती सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है अप्रतिम आलेख “भक्ति रस”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 221 ☆
🌻आलेख🌻 🪔भक्ति रस 🪔
क्षिति जल पावक गगन समीरा।
पंच रचित अति अधम शरीरा।।
यही हमारे शरीर की संरचना है। इसी शरीर को स्वस्थ निरोगी और विद्यमान रखने के लिए अनेकों प्रकार के संसाधन किए जाते हैं। सृष्टि विधाता ने अपने विधान से इस चार युगों में बाँटे हैं – सतयुग, त्रेता युग, द्वापर युग और कलयुग।
सतयुग ऋषि मुनि संतों का युग जहाँ वचन से श्राप और उन्नति का माप हो जाता था। बड़े से बड़े कार्य सिर्फ वचन के आधार पर ही स्थापित और विध्वंस हो जाते थे। इसे देवों का काल भी कहा जाता है।
त्रेता युग प्रभु श्री राम का अवतार और जहाँ मर्यादा का पाठ सर्वोपरि माना गया। इस युग में नारायण श्री हरि स्वयं धरा पर आए। सत्य, निष्ठा, वचन, धर्म – कर्म, मर्यादा का पालन करना सीखा गए। ऐसी लीला प्रभु की जो स्थान भगवान राम को मिला अन्यत्र किसी को दुर्लभ हुआ।
द्वापर युग में प्रभु नारायण अपने ही रूप को मानव के समूल चरित्र को अंगीकृत करते और लीला रचते श्री कृष्ण के रूप में जगत में आए। बाल लीला और छलिया अंतर केवल ब्रह्म ऋषि और वेद शास्त्र ने जाना। वरन सृष्टि में सांसारिक लीला रचते मानवीय मूल्यों का अपने और पराय धर्म और धर्म का ज्ञान सीख गए। युग परिवर्तन होता गया।
कलयुग का आरंभ हुआ जिसे हम वर्तमान में कलयुग चल रहा कहते हैं।
सभी युगों में भगवान की प्रति निष्ठा, श्रद्धा, सेवा, आस्था, साकार निराकार और भक्ति से हमारे पूर्वजों ने अपने-अपने मन को शांत किया। किसी ने तप, किसी ने जप, किसी ने यज्ञ हवन और किसी ने संगीत किसी ने मन के भावों को प्रत्यक्ष प्रमाण के रूप में प्रदर्शित कर प्रभु की आराधना करते चले गए।
वेदव्यास जी के द्वारा महान ग्रथों की स्थापना हुई। चार वेद असंख्य ग्रंथ और तुलसी रचित रामायण ने अखंड अमित श्री राम चरित्र रामायण की रचना की।
वर्तमान काल, भूतकाल, भविष्य काल, आदिकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल, आधुनिक काल, वीरगाथा काल, पूर्व मध्यकाल, उत्तर मध्यकाल इन सभी में समय परिवर्तन धीरे-धीरे होता गया और इन सभी में समानता सामान्य यह रही की सभी ने अपने-अपने मन के भावों को उजागर किया।
आधुनिक काल में गद्य और पद्य दो विधाओं का विकास हुआ। काव्य धारा बहती गई। छाया युग, प्रगति युग, प्रयोग युग, यथार्थ युग।
गद्य में भारतेंदु युग, द्विवेदी युग, रामचंद्र शुक्ल युग, प्रेमचंद युग, अघतन युग।
डॉ रामचंद्र शुक्ल ने वीरगाथा काल भक्ति, काल रीतिकाल, और आधुनिक काल का विभाजन किया। जिसे आज भी सर्वोपरि माना जाता है। आधुनिक डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी ने आदिकाल, मध्यकाल और आधुनिक काल का विभाजन किया।
डॉक्टर नाम वर सिंह ने आदिकाल, भक्ति काल, रीतिकाल, और उत्तर रीतिकाल, आधुनिक काल, को विभाजित किया।
भक्ति काल संपूर्ण सृष्टि में हिंदी साहित्य का स्वर्ण युग रहा। इसकी सीमा कल 1375 से 1700 मानी जाती है। इसमें भक्ति के जरिए समाज का सुधार उध्दार और एक नई दिशा प्रदान करने का सामर्थ बढा।
जनमानस तक पहुंचाने का मार्ग माध्यम बना। इस कल में निर्गुण उपासना और सगुण उपासना दोनों तरह के भक्त और साहित्यकार हुए।
भक्ति काल में मुख्य रूप से तुलसीदास, कबीर दास, रहीम, मीरा, रसखान मलिक, मोहम्मद जायसी, सूरदास, आदि महान संत हुए।
भक्ति काल के मुख्य मार्ग सगुण भक्ति मार्ग राम भक्ति एवं कृष्ण भक्ति।
दूसरा निर्गुण भक्ति मार्ग ज्ञानमार्गी एवं प्रेम मार्गी।
भक्ति काल पूर्ण रूप से प्रभु के प्रति भक्ति की भावना से प्रेरित रहा। भक्ति काल में भक्त प्रेम और भक्ति की प्रधानता रही।
” एक राधा एक मीरा दोनों ने श्याम को चाहा”
“चाह मीरा थी गिरधर दीवानी बनी।
चाह राधा श्री मोहन की प्यारी बनी”।।
इस भाव से भी हम इसे ज्यादा समझ सकते हैं। संसार में राधा कृष्ण की जोड़ी सिर्फ निश्छल प्रेम को स्थापित करती है। वहीं पर राजघराने की मीरा केवल भक्ति रूप में कृष्ण को मानसिक पति के रूप में पूजती रही।
उन्हें पाने या आत्मसमर्पण की भावना कभी भी विद्यमान नहीं दिखती। संत समागम और गुरु की महत्ता भी कूट-कूट कर भक्ति काल में समाहित हुई।
कबीर और सूरदास की रचनाओं में आज भी मनुष्य डूब कर प्रभु के साकार रूप के दर्शन करता है। जहाँ सूरदास जी काव्य संरचना में भगवान के श्रृंगार सहित सभी अंग आभूषण का वर्णन करते हैं।
वही कबीर दास जी पत्थर की चक्की को पूजने की बात कहतेहैं।
जिससे जीवन जीने की कला और मानव के भूख पेट की शांति होती है।
पाहन पूजे हरि मिले तो मैं पूजू पहार।
इससे तो चाकी भली पीस खाए संसार।।
जहाँ कबीर दास जी की चक्की का वर्णन वही आज भी लोगों की धारणा है कि मीरा की भक्ति की वजह से प्रभु कृष्ण जी पत्थर की मूर्ति में स्वयं मीरा समा गई थी।
“जा की रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तीन तैसी”
भक्ति काल में प्रभु नाम संस्मरण को प्रथम उपाय माना गया। प्रभु भगवन प्राप्ति का महर्षि वाल्मीकि जी ने राम का नाम उल्टा जपा और स्वयं ब्रह्मा के समान हुए। पहले रत्नाकर दास नाम के डाकू थे जो केवल छीन झपट मार काट कर खाना जानते थे।
उल्टा नाम जपा जग जाना।
बाल्मीकि भए ब्रह्म समाना।।
भक्ति काल में राधा और मीरा भगवान कृष्ण की अन्नय भक्त है। एक नारी जब नर नारायण को चाहती पूजा करती या प्रेम समर्पण की भावना रखती है। तो वह किसी न किसी रूप में उसे पाना चाहती है।
राधा ने प्रभु कृष्ण को प्रेम की परिभाषा में रंगी। वही मीरा ने प्रेम को ही कृष्ण के रूप में स्वीकार किया था।
जहाँ पर किसी प्रकार का कोई भेद नहीं सिर्फ प्रेम और प्रेम भक्ति का ही एक रूप है होता है।
राधा जानती थी कि कृष्णा मेरा है परंतु वह भक्ति समाहित प्रेम नहीं था वह सिर्फ चाह रही थी भगवान को और समय-समय पर प्रतिपल उनके साथ भी रहना चाहती थी कि कृष्ण भी उन्हें चाहे, प्रेम करें, परंतु मीरा ने जो भक्त की वह सिर्फ प्रेम भक्ति थी उसे न तो पति के रूप में उन्हें जीवन की भौतिक सुख चाहिए था और ना ही उन्हें सांसारिक माया मोह।
पति प्रेम में ही वह डूबती चली थी। साम्राज्य और लोकनाज से कोसों दूर व सिर्फ पति प्रेम जिसे वह दे रही थी उसे मिले या ना मिले इसका भी उसे कोई सरोकार नहीं था।
परंतु भक्ति ऐसी की आज के समय में तो शायद सिर्फ ग्रंथ और किताबों में ही है। साहित्यकार इसे अपने-अपने तरीके से आज भी सुंदर और अपने भावों की रचनाओं से सुशोभित करते हैं।
राधा रानी की चाहत को लिए महारास और राधा के अनगिनत प्रेम प्रसंग से सराबोर हमारे भक्ति काल में राधा को ही सर्वोपरि माना गया। भगवान ने एक बार परीक्षा ली कि शरीर में छाले पड़ गए हैं। यदि कोई सखी अपनी चरण धूलि दे दे तो ज्वर और छाले ठीक हो जाएंगे। कहते हैं श्री कृष्ण की भक्ति में लीन कोई भी सखी ऐसा नहीं मिली जो चरण धूलि दे। परंतु बात राधा के कानों तक पहुंची। राधा श्री ने तुरंत अपने पाँव से निकलकर चरण राज दे दिया। रानी पट रानी सभी ने हार मानी।
राधा का प्रेम सिर्फ प्रेम ही नहीं वक्त पढ़ने पर भारी संकटों को अपने ऊपर लेकर अपने भगवान प्रेमी को मुक्त करना होता है। कहा गया था जो चरण रज देगी उसे अनंत कोटि वर्षों तक रैरव नरख निवास मिलेगा।
परंतु राधा जी ने कृष्ण के लिए अनंत कोटि रैरव नरक स्वीकार किया। इस पल मेरे श्याम ठीक हो जाए यह भक्ति प्रेम की सर्वोपरि प्रकाष्ठा है।
तुलसीदास ने जी ने भी प्रेम से लिप्त जब पत्नी के पास पहुंचे पत्नी की कठोर कटाक्ष बातों से आत्मा को तार – तार होते देखा।
भगवान प्राप्ति के लिए अपने आप को दास मानते तप, संयम, श्रद्धा, विश्वास, प्रेम, प्रभु कृपा और शरणागति को ही अपना साधन बनाया। और आदि अनंत तक जीवंत हो गए।
दास के रूप में तुलसीदास जी ने प्रभु भक्ति का मार्ग निर्मल और साकार बताया।।
भक्त गंगा सी निर्मल पावन बनों।
प्रेम पूजे प्रभु गल की माला बनों।।
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© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈