प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित – “कविता – आदमी जिये नित आदमी के लिये…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे.।)
☆ काव्य धारा # 218 ☆
☆ शिक्षाप्रद बाल गीत – आदमी जिये नित आदमी के लिये… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
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जाति में धर्म में भिन्नता हो भले,
भिन्न परिवेश हों और व्यवस्था अलग
हो पढ़ा या अनपढ़ हो गुणी-अवगुणी
आदमी कोई किसी से रहे न विलग ।
ऊपरी भेद दिखते अनेकों भले,
भीतरी पर कहीं कोई अन्तर नहीं
हैं वही भावनाएँ, वही सोच सब
बातें वैसी ही, वैसा ही व्यवहार भी ॥
रूप रंग साजसज्जा तो हैं बाहरी मन के,
भावों का अन्दर है एक-सा चलन एक-सी जिंदगी,
एक-सी आदतें, एक-सी लालसा एक जीवन-मरण।
स्वार्थ है हर जगह आपसी वैर भी, प्रेम का भाव भी
द्वेष भी द्वन्द भी इसी से प्रीति की बेल पलती नहीं,
होती रहती अंजाने ही खटपट कभी ॥
बुद्ध, महावीर, ईसा, मोहम्मद ने आ, आदमी को सिखाया
कि मिल के रहें मन को मैला न कर, कुछ छपाये नहीं,
जो भी सच हो उसे साफ निर्भय कहें।
प्रेम ही धर्म है, प्रेम ही जिंदगी
आदमी जिये नित आदमी के लिये
अपने श्रम से है जब लोग पाते खुशी,
खुद भी हर व्यक्ति को खुशी मिलती तभी ॥
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© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
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