श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”
संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी के साप्ताहिक स्तम्भ “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “अपनेपन की मुस्कानों पर, जिंदा हूँ…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।
मनोज साहित्य # 169 – अपनेपन की मुस्कानों पर, जिंदा हूँ… ☆
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अपनेपन की मुस्कानों पर, जिंदा हूँ।
नेह आँख में झाँक-झाँक कर, जिंदा हूँ।।
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आश्रय की अब कमी नहीं है यहाँ कहीँ,
चाहत रहने की अपने घर, जिंदा हूँ।
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खोल रखी थी मैंने दिल की, हर खिड़की।
भगा न पाया अंदर का डर, जिंदा हूँ।
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तुमको कितनी आशाओं सँग, था पाला।
छीन लिया ओढ़ी-तन-चादर, जिंदा हूँ।
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माना तुमको है उड़ने की, चाह रही।
हर सपने गए उजाड़ मगर, जिंदा हूँ।
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विश्वासों पर चोट लगाकर, भाग गए।
करके अपने कंठस्थ जहर, जिंदा हूँ।
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धीरे-धीरे उमर गुजरती जाती है।
घटता यह तन का आडंबर, जिंदा हूँ।
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© मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”
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