श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “अपनेपन की मुस्कानों पर, जिंदा हूँ…। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 169 – अपनेपन की मुस्कानों पर, जिंदा हूँ… ☆

अपनेपन की मुस्कानों पर, जिंदा हूँ।

नेह आँख में झाँक-झाँक कर, जिंदा हूँ।।

*

आश्रय की अब कमी नहीं है यहाँ कहीँ,

चाहत रहने की अपने घर, जिंदा हूँ।

*

खोल रखी थी मैंने दिल की, हर खिड़की।

भगा न पाया अंदर का डर, जिंदा हूँ।

*

तुमको कितनी आशाओं सँग, था पाला।

छीन लिया ओढ़ी-तन-चादर, जिंदा हूँ।

*

माना तुमको है उड़ने की, चाह रही।

हर सपने गए उजाड़ मगर, जिंदा हूँ।

*

विश्वासों पर चोट लगाकर, भाग गए।

करके अपने कंठस्थ जहर, जिंदा हूँ।

*

धीरे-धीरे उमर गुजरती जाती है।

घटता यह तन का आडंबर, जिंदा हूँ।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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