श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज से प्रत्यक शनिवार प्रस्तुत है  यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा)

? यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-२१ ☆ श्री सुरेश पटवा ?

हम लोग जैसे-जैसे सीढ़ियाँ चढ़ते जा रहे थे, पसीना से तरबतर होते जा रहे थे। अंत में तीखी चढ़ाई पर पेड़ों की मौजूदगी भी कम होती जा रही थी। तक़रीबन सौ-सवा सौ सीढ़ियाँ बची होंगी। वहाँ सीधी चढ़ाई पर भारी भीड़ अटी थी। चढ़ने वाले और उतरने वाले दोनों आमने-सामने अड़े थे। उनमें ध्यानु-ज्ञानु बकरों का विवेक नहीं था कि एक दूसरे को राह देकर निकल जाएँ। सीढ़ियों के आजूबाजू बहुत बड़े पत्थरों के ढेर थे। जिन पर बंदरों का हुजूम था। एक बंदर ने बच्चे के हाथ से कोल्ड ड्रिंक की बोतल छुड़ा, ढक्कन खोल गटागट पीना शुरू किया तो लोगों ने फोटो निकालना शुरू कर दिया। मानों पुरखों की पेप्सी पसंदगी को सहेजना चाहते हों। भीड़ इंच भर भी नहीं खिसक रही थी। ऊपर आंजनेय पहाड़ी पर जय हनुमान के जयकारे के साथ घंटों की टंकार ध्वनि गूँज रही थी। एक लाउड स्पीकर पर हनुमान-चालीसा चल रहा था। भक्त भी उसकी ध्वनि में ध्वनि मिला रहे थे कि शायद इस मुश्किल से मुक्ति मिल जाए।

एक प्रश्न मन में आया कि हम लोग तो हनुमान-चालीसा पढ़-सुन कर कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करने की राह देखते हैं। जब हनुमान जी पर मुश्किल आती थी तो वे बुद्धि-विवेक से राह तलाशते थे। जब बुद्धि-विवेक से संजीवनी बूटी सूझ नहीं पड़ी तो समूचा पर्वत उठा लाए थे। भूखी-प्यासी भीड़ निजात की राह तलाशते खड़ी थी। तभी उतरती भीड़ के कुछ युवक चट्टानों के बीच से रास्ता बना नीचे की तरफ़ उतरने लगे। हमने भी इसी तरह की कोशिश सोची। बाईं तरफ जूते-चप्पलों का एक छोटा सा ढेर दिखा। कई भक्त शनिवार को दर्शन करने आते हैं तो अपने जूतों के साथ शनि की बुरी दशा को भी उतार कर फेंक जाते हैं।

शनिदेव से जुड़ी से जुड़ी एक और परिपाटी है कि शनिदेव को तेल का दान करने से शनि के बुरे प्रभाव से मुक्ति मिलती है। जो लोग ये उपाय नियमित रूप से करते हैं, उन्हें साढ़ेसाती और अढय्या से भी मुक्ति मिलती है। लेकिन शनिदेव तेल चढ़ाने से क्यों प्रसन्न होते हैं।

ऐसी मान्यता है कि रावण की क़ैद में शनिदेव काफी जख्मी हो गए थे, तब हनुमान जी ने शनिदेव के शरीर पर तेल लगाया था जिससे उन्हें पीड़ा से छुटकारा मिला था। उसी समय शनि देव ने कहा था कि जो भी व्यक्ति श्रद्धा भक्ति से मुझ पर तेल चढ़ाएगा उसे सारी समस्याओं से मुक्ति मिलेगी। तभी से शनिदेव पर तेल चढ़ाने की परंपरा शुरू हो गई। इसको लेकर कथा प्रचलित है कि रावण ने सभी नौ ग्रहों को बंदी बना रखा था। शनिदेव को उल्टा लिटा कर उनकी पीठ पर पैर रख सिंहासन पर बैठता था।  शनिदेव ने रावण से विनती की “हे राजन, मुझे चित लिटा कर मेरे ऊपर पैर रखकर बैठिए, मैं कम से कम आपके मुखारबिंद का दर्शन लाभ प्राप्त करता रहूँगा। विनाशकाले विपरीत बुद्धि कहावत चरितार्थ करते रावण ने शनिदेव को चित लिटा लिया। शनिदेव की वक्रदृष्टि रावण के चेहरे पर पड़ती रही। यहीं से रावण के अंत की शुरुआत होती है।

हनुमान द्वारा मुक्ति के समय शनिदेव ने कहा था कि जो भी व्‍यक्ति श्रद्धा भक्ति से मुझ पर तेल चढ़ाएगा उस पर मेरी वक्रदृष्टि नहीं पड़ेगी। उसे सारी समस्‍याओं से मुक्ति मिलेगी। एक साथी ने उत्कंठा वश जानना चाहा, क्या ऐसा होता है।

हमने कहा- एक चीज होती है- श्रद्धा और दूसरी चीज उसी से उपजती है- विश्वास। जब आपको हनुमान जी पर श्रद्धा है तो उनके कार्यों पर विश्वास भी होगा ही। नहीं तो विकलांग श्रृद्धा किसी काम की नहीं होती। पूरे भारत में शनिवार को शनिदेव पर तेल चढ़ाया जाता है। यह इसी पौराणिक आख्यान में विश्वास का द्योतक है और इन्ही विश्वासों से किसी देश की संस्कृति जन्म लेती है। आधुनिक मनोविज्ञान मानता है कि मुश्किलों से पार पाने में आत्म-विश्वास बड़े काम की चीज होता है।

हमने भी आत्म-विश्वास पूर्वक जूतों के ढेर पर से चलते हुए सीढ़ियों से हटकर रास्ता बनाया। पंद्रह मिनट में पर्वत की चोटी पर थे। दो साथी भी उसी तरीक़े से ऊपर पहुँच गए। ऊपर से नीचे सीढ़ियों की तरफ़ देखा तो हमारा दल बुरी तरह गसी भीड़ में पैवस्त था। किसी भी तरफ़ निकल नहीं सकता था। उन्हें भीड़ के साथ ही चींटी चाल से खिसक कर चढ़ना था।

हमको भूख लगी थी। एक जगह नारियल से नट्टी निकालने का उपक्रम चल रहा था। कुछ महिलाएं भक्तों का नारियल पत्थरों से कूट कर निकाल एक हिस्सा अपने पास रख बाकी भक्तों को दे देती थीं। हम उनके नज़दीक उनके नारियल निकालने की कला को देखते बैठ गए। एक भक्त हमको भी नारियल से नट्टी निकालने को देने लगे तो हमने तनिक देर सोचा, और नारियल लेकर पत्थरों की दो चोट से गूदा बाहर करके एक हिस्सा उन्हें पकड़ा दिया। दूसरा नीचे रख लिया। फिर तीन-चार भक्त और आ गए। करीब दसेक मिनट यह धंधा चला। भूख मिटाने योग्य नारियल को नल के पानी से धोया और चबाते रहे। कुछ भक्त प्रसाद में मीठी चिरौंजी दे गए। नारियल और चिरौंजी के ग्लूकोस से प्रफुल्लित हो,  दल के साथियों के आने तक पहाड़ी से नीचे तुंगभद्रा नदी के आलिंगन में बसे हनुमानहल्ली गांव के साथ सुंदर दृश्यावली का आनंद लिया।

क्रमशः…

© श्री सुरेश पटवा 

भोपाल, मध्य प्रदेश

*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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