डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी  एक मनोवैज्ञानिक एवं विचारणीय कथा – ‘जानवर’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 284 ☆

☆ कथा-कहानी ☆ जानवर

रोज़ की तरह सवेरे सवेरे ही केदार दादा घर का दरवाज़ा खोलकर बरामदे में बैठ गये। सामने सड़क पर लोगों का आना-जाना चल रहा था। खरखराते हुए हल, ढचर-ढचर करती बैलगाड़ियां,चंगेर में बच्चों को लिए, उंगलियों से अंग्रेज़ी का अक्षर ‘वी’ बना कर उसके बीच में इधर-उधर देखती घूंघटवाली औरतें— सब अपने अपने काम पर जा रहे थे। केदार के सामने आने पर लोगों का उनसे ‘राम राम’ का आदान-प्रदान होता।

केदार की नींद सवेरे चार बजे ही खुल जाती है। वे लेटे-लेटे करवटें बदलते बाहर सड़क पर होने वाले तरह-तरह के शब्द सुनते रहते हैं—चमरौधे जूतों की चर्रमर्र, हलों की खरखराहट, गुज़रते हुए लोगों के बतयाने की आवाज़ें, बाहर घास पर मुंह मारते मवेशियों की चभड़-चभड़। पांच बजे सवेरे से पास के मन्दिर में ऊंचे स्वर में भगवत लाल का भजन शुरू हो जाता है। भगवत लाल दस साल से भी अधिक समय से यह काम समर्पित होकर कर रहा है।

जब अंधेरा बिल्कुल सिमट जाता है तब केदार बाहर निकल कर तख्त पर बैठ जाते हैं। इसी तरह बहुत वक्त गुज़र जाता है। जब पुन्नू घोसी दूध दे जाता है तभी भीतर जाकर चाय बनाते हैं और पीकर बाहर बैठ जाते हैं।

एकाएक उनका पालतू बिल्ली का बच्चा भीतर से रेंगकर बाहर आया और उनके पैरों के पास खड़े होकर उनके मुंह की तरफ मुंह उठाकर ‘म्याऊं म्याऊं’ करने लगा। यह बच्चा बिलौटा था, यानी नर। वह काले और सफेद रंग का बहुत प्यारा लगने वाला बच्चा था। जब  वह केदार की तरफ मुंह उठाकर चिल्लाता तो ऐसा लगता जैसे कोई बच्चा शिकायत कर रहा हो।

केदार उसकी तरफ झुक कर प्यार से बोले, ‘कहो सीताराम, भूख लग आयी? थोड़ा रुको, दूध आता ही होगा।’

बिलौटा थोड़ी देर तक इसी तरह चिल्लाता रहा, फिर कूद कर उनकी गोद में चढ़ गया और उनकी जांघ पर सर रखकर आराम से ऊंघने लगा। केदार उसके मखमल से शरीर पर हाथ फेरने लगे।

केदार घर में अकेले रहते हैं। पत्नी की आठ साल पहले मृत्यु हो गयी थी। थोड़ी सी ज़मीन है जो बटाई पर दे देते हैं। एक बेटा है जो भोपाल में प्रोफेसर है। शादीशुदा है, तीन बच्चों का बाप। दो बेटियां हैं जो अच्छे घरों में चली गयी हैं। बेटा सत्यप्रकाश साल में एकाध बार ही घर आता है। उसके बच्चे अंग्रेज़ी स्कूलों में पढ़ते हैं। इसलिए होता यह है कि जब बाप को छुट्टी मिलती है तब बच्चों को नहीं मिलती, और जब बच्चों को दिसम्बर में बड़े दिन की छुट्टी मिलती है तब बाप को नहीं  मिलती। वही गर्मी की छुट्टी में आठ दस दिन के लिए आना हो पाता है, वह भी अनिश्चित। कुछ  ऐसा भी लगता है कि सत्यप्रकाश का मन अब गांव में नहीं लगता, इसलिए वह किसी न किसी बहाने अपना आना टालता रहता है।

पहले यह होता था कि सत्यप्रकाश कह देता कि वह  अमुक महीने में आएगा और केदार दादा दिन गिनना शुरू कर देते। बताया हुआ महीना आने पर वे रोज़ शाम को बस अड्डे पर बैठ जाते और रात दस बजे तक बैठे रहते। उनकी नज़र हर बस को व्यग्रता से छानती रहती। अन्त में वे उदास चेहरे से घर लौट आते। फिर जब सत्यप्रकाश आता तो वे उसे उलाहना देते।

सत्यप्रकाश के दो बेटे और बीच में एक बेटी थी। बेटे आठ और तीन साल के और बेटी पांच साल की थी। केदार के प्राण उन बच्चों में लगे रहते। जब बच्चे आ जाते तो वे बहुत खुश रहते। उनकी उंगली पकड़कर उन्हें सारे गांव में घुमाते। छोटे अरुण की अटपटी बातों के जवाब वैसी ही अटपटी भाषा में देते। घर में जो भी आदमी आता उससे बच्चों के बारे में ही बात करते। केदार दादा के वे दस बारह दिन जैसे पंख लगाकर उड़ जाते।

जब बच्चे चले जाते तो केदार बहुत उदास हो जाते। उनके जाते वक्त बस-अड्डे पर केदार की आंखें भर भर आतीं। वे खड़े-खड़े चेहरा इधर-उधर घुमाते रहते। बच्चे निस्पृह भाव से ‘टाटा’ करते हुए चले जाते और केदार के लिए घर तक पहुंचना मुश्किल हो जाता। दो तीन दिन तक उन्हें खाने-पीने इच्छा न होती। वे मुंह लटकाये तख़्त पर बैठे रहते।  कोई मिलने वाला आता तो बार-बार कहते— ‘बच्चों की याद आ रही है।’ वे महीनों तक बच्चों की शरारतों और उनके भोलेपन की चर्चा करते रहते।

तीन चार बार केदार शहर जाकर बेटे के घर में रहे थे। उन्होंने सोचा था वहां बच्चों के साथ मन लगा रहेगा। लेकिन वहां पहुंचकर उन्हें लगता जैसे वे अपने स्वाभाविक वातावरण से टूट गये हों। उन्हें लगता जैसे वे बिलकुल फालतू और बाहरी आदमी हों। सब अपने अपने काम में लगे रहते और वे पलंग पर करवट बदलते रहते या बरामदे में कुर्सी पर बैठे इधर-उधर ताकते रहते।बच्चे भी उनके पास बैठने के बजाय अपने साथियों के साथ खेलना पसन्द करते। मुहल्ले में उनको अपने प्रति उदासीनता और रुखाई का भाव नज़र आता। एक  दो बुजुर्गों के साथ उठना-बैठना हो जाता था, लेकिन वहां भी उन्हें आराम और निश्चिंतता महसूस न होती। वे  मुहल्ले की सड़क पर निरुद्देश्य घूमते रहते और मुहल्लेवालों की उपेक्षापूर्ण नज़रों के सामने सिकुड़ते रहते।

जब वे वापस अपने गांव लौटते तो उन्हें लगता जैसे मन और  शरीर के सब तार फिर ढीले हो गये हैं। बस से उतरते ही उन्हें लगता जैसे गांव ने अपने दोनों हाथ बढ़ाकर उन्हें गले से लगा लिया हो और उनके मन से एक बोझ उतर गया हो। गांव पहुंचकर वे प्रोफेसर चतुर्वेदी के बाप होने के बजाय केदार दादा हो जाते और यह फर्क उनके लिए बहुत महत्वपूर्ण हो जाता।

वह बिलौटा पिछली गर्मियों में केदार के घर में आया था जब सत्यप्रकाश बच्चों के साथ आकर जा चुका था। तब हमेशा की तरह केदार बहुत मायूस थे। वे रात को घर के आंगन में चुपचाप लेटे आकाश के तारों को देखते रहते। किसी काम में उनका मन न लगता।

ऐसे ही जब  एक शाम को केदार भीतर खंभे से टिके खामोश ज़मीन पर बैठे थे तब प्यारेलाल सेठ का छोटा लड़का विजय उस बिलौटे को लिये आया। बोला, ‘ दादाजी, इसे रख लो। कोई कुत्ता वुत्ता मार डालेगा।’

केदार बोले, ‘तू अपने घर क्यों नहीं ले जाता?’

वह बोला, ‘दद्दा गुस्सा होंगे। अम्मां से पूछूंगा। वे कह देंगीं तो ले जाऊंगा।’

केदार बोले, ‘इस दलिद्दर को मैं कहां रखूंगा? हग-मूत कर सारा  घर खराब करेगा।’

विजय बोला, ‘आप अभी रख लो, दादाजी। फिर मैं ले जाऊंगा।’

केदार बोले, ‘ठीक है। छोड़ जा। एक से दो भले।’

केदार ने बिलौटे को एक कोने में बांध दिया। उसके सामने एक कटोरी में दूध रख दिया। वह उसे पीने लगा। अकेला पड़ जाने पर वह ज़ोर से चिल्लाने लगता। केदार के नज़दीक आने पर चुप होकर एक तरफ दुबक जाता। रात को केदार ने उसे कोठरी में एक बोरा बिछाकर उस पर बैठा दिया और बाहर से सांकल चढ़ा दी। विजय फिर उसे नहीं ले गया। दूसरे दिन वह बता गया कि उसके दद्दा बिलौटे को रखने  के लिए तैयार नहीं हैं। वह बोला, ‘अब आपको रखना हो तो रखे रहो, नहीं तो जैसा ठीक समझो करो।’ केदार ने बिलौटे को अपना लिया। 

धीरे-धीरे उन्हें बिलौटे की क्रियाओं में आनन्द आने लगा। वह घर में पड़ी चीज़ों से अपने आप ही खेलता रहता। लुढ़कने वाली चीज़ों को धक्का देकर उनके आगे-पीछे भागता रहता। चींटियों को देखकर वह कूद-कूद कर उन्हें पकड़ता। केदार दूर बैठे उसकी शरारतों का मज़ा लेते रहते ।

धीरे-धीरे वह उन्हें बहुत प्यारा लगने लगा। उसकी हरी-नीली आंखें, छोटा सा मुंह और छोटे-छोटे पंजे बहुत अच्छे लगते। धीरे-धीरे बिलौटे का डर भी दूर होने लगा और वह केदार को अपने रक्षक के रूप में पहचानने लगा। अब वह भूखा होने पर केदार के पास आकर मुंह उठाकर चिल्लाने लगता। केदार हंसकर उसे दूध लाकर देते।

सबसे बड़ी बात यह हुई कि बिलौटे ने केदार के मन की सारी उदासी छांट दी। केदार घर में आते ही उसके साथ व्यस्त हो जाते, उसकी उछलकूद और शिकायतों का मज़ा लेते रहते। बिलौटे ने उनके जीवन की रिक्तता भर दी। उनके कहीं बैठते ही वह उछलकर उनकी गोद में आ जाता और आंखें बन्द करके सोने की मुद्रा बना लेता। अब रात को केदार अपनी खाट की बगल में ही उसे एक बोरी पर बैठा कर टोकरी से ढंक देते। गांव में कहीं जाने पर वे  अक्सर उसे अपनी बांहों में लिये रहते। उनके  परिचित कहते, ‘बुढ़ापे में अच्छी माया में फंस गए तुम।’

केदार जवाब देते, ‘क्या करें? जब तक जीवन है तब तक कुछ सहारा तो चाहिए।’

अगली गर्मियों में फिर सत्यप्रकाश हर साल की तरह बतायी हुई तारीख से दस दिन देर से आया। लेकिन इस बार केदार को ज़्यादा परेशानी नहीं हुई। वे सीताराम को अपनी गोद में लेकर बस-स्टैंड जाते और आखिरी बस देखकर लौट आते। अब उन्हें  पहले जैसी उदासी महसूस नहीं होती थी।

अन्ततः सत्यप्रकाश बच्चों के साथ हमेशा की तरह अपराधी भाव लिये हुए आया। बच्चों से मिलकर केदार बहुत खुश हुए। लेकिन सत्यप्रकाश को यह  देखकर आश्चर्य हुआ कि उन्होंने इस बार उसके सामने शिकायतों का पिटारा नहीं खोला।

वे बच्चों की उंगली थाम कर गांव में घूमते, लेकिन उनकी गोद में सीताराम बैठा रहता। बच्चों को भी यह  खिलौना पाकर बहुत खुशी थी। वे उसके साथ दिनभर खेलते-कूदते रहते, उसकी क्रियाओं का मज़ा लेते रहते। लेकिन केदार भी दूर से उन पर नज़र रखते। बिलौटे के प्रति थोड़ी सी क्रूरता होते ही वे बच्चों को मना कर देते।

वे कहीं से घूमघाम कर  लौटते तो बहू से पूछते, ‘बेटा, सीताराम को दूध दे दिया था न?’ खाने के लिए बैठते तो फिर यही पूछताछ कर लेते। कहीं से देर से लौटते तो इत्मीनान कर लेते कि बिलौटा घर में ठीक-ठाक है या नहीं।

बहू संध्या ससुर का यह नया मोह देखकर उनका मज़ाक उड़ाने लगी थी। वह अपने पति से कहती, ‘देखना तुम्हारा छोटा भाई कहां है? लगता है आपके छोटे भाई साहब को भूख लगी है।’

सत्यप्रकाश हंसकर चुप हो जाता।

आठ दस दिन बाद फिर सत्यप्रकाश ने जाने की तैयारी की। हमेशा की तरह वह अपराध भाव से ग्रसित होकर बार-बार पिता के चेहरे की तरफ देखता, क्योंकि उसके जाते वक्त पिता की जो हालत होती थी उसे वह जानता था। लेकिन इस बार उसे पिता के चेहरे पर पहले  जैसी उदासी दिखायी नहीं पड़ रही थी। इस बात से उसे आश्चर्य भी हुआ और संतोष भी।

जिस दिन वे जाने वाले थे उस दिन ही केदार एकाएक परेशान हो गये। वजह यह थी कि उस सवेरे अरुण एकाएक उनसे बोला, ‘दादाजी, हम सीताराम को अपने साथ ले जाएं ? हम उसके साथ खेलेंगे।’

केदार यह सुनकर बहुत परेशान हो गये। हड़बड़ाकर बोले, ‘नहीं बेटा, हम तुम्हारे लिए दूसरा बिल्ली का बच्चा ढूंढ देंगे। सीताराम को मत ले जाओ। हम इससे भी अच्छा तुम्हें लाकर देंगे।’

अरुण ने दो-तीन बार और उनसे आग्रह किया, लेकिन केदार के मुंह से ‘हां’ नहीं निकला। अन्ततः अरुण चुप हो गया। इस बात पर संध्या मन ही मन ससुर से क्रुद्ध हो गयी।

जब केदार सबको छोड़ने चलने लगे तो उन्होंने सीताराम को सावधानी से कमरे में बांध दिया।

बस-अड्डे पर सबके बस में बैठ जाने पर वे नीचे खड़े रहे। उनके अधिक उद्विग्न न होने के कारण सत्यप्रकाश भी प्रसन्न था।

बस चलने को ही थी। एकाएक अरुण को शरारत सूझी। वह खिड़की से झांककर चिल्लाकर बोला, ‘ देखिए दादाजी, हम सीताराम को चुपचाप ले आये।’

सुनते ही केदार लपक कर बस में चढ़ गये और अरुण की सीट के पास जाकर झांक-झांककर पूछने लगे, ‘कहां है? कहां है?’

अरुण ताली बजा-बजाकर हंसने लगा, ‘दादाजी बुद्धू बन गये।  दादाजी बुद्धू बन गये।’

केदार खिसियानी हंसी हंसकर अरुण  का गाल थपककर नीचे उतर आये। संध्या ने व्यंग्य से पति की तरफ देखा और सत्यप्रकाश ने कुछ  लज्जित भाव से अपनी नज़र दूसरी तरफ घुमा ली।

बस स्टार्ट होकर चल दी। बच्चे दूर तक खिड़की में से हाथ हिलाते रहे और केदार प्रत्युत्तर में हाथ हिलाते रहे। इसके बाद वे घूमकर सधे कदमों से घर की तरफ चल दिये।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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