श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक ज्ञानवर्धक बाल कहानी – “शिप्रा की आत्मकथा”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 209 ☆
☆ बाल कहानी – शिप्रा की आत्मकथा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
मैं मोक्षदायिनी शिप्रा हूं। मुझे मालवा की गंगा कहते हैं। मेरे जन्म के संबंध में दो किवदंतियां मशहूर है। पहली किवदंती के अनुसार मेरा जन्म अति ऋषि की तपस्या की वजह से हुआ था।
कहते हैं कि अति ऋषि ने 3000 साल तक कठोर तपस्या की थीं। वे अपने हाथ ऊपर करके इस तपस्या में लीन थें। जब तपस्या पूर्ण हुई तो उन्होंने आंखें खोलीं। तब उनके शरीर से दो प्रकार स्त्रोत प्रवाहित हो रहे थें। एक आकाश की ओर गया था। वह चंद्रमा बन गया। दूसरा जमीन की ओर प्रवाहित हुआ था। वह शिप्रा नदी बन गया।
इस तरह धरती पर शिप्रा का जन्म हुआ था।
दूसरी किवदंती के अनुसार महाकालेश्वर के क्रोध के परिणाम स्वरूप शिप्रा ने जन्म लिया था। किवदंती के अनुसार एक बार की बात है। महाकालेश्वर को जोर की भूख लगी। वे उसे शांत करने के लिए भिक्षा मांगने निकले। मगर बहुत दिनों तक उन्हें भिक्षा प्राप्त नहीं हुई। तब वे भगवान विष्णु के पास गए। उन से भिक्षा मांगी।
भगवान विष्णु ने उन्हें तर्जनी अंगुली दिखा दी। महाकालेश्वर अर्थात शंकर भगवान क्रोधित हो गए। उन्होंने त्रिशूल से अंगुली भेद दी। इससे अंगुली में रक्त की धारा बह निकली।
शिवजी ने झट अपना कपाल रक्त धारा के नीचे कर दिया। उसी कपाल से मेरा अर्थात शिप्रा का जन्म हुआ।
मैं वही शिप्रा हूं जो इंदौर से 11 किलोमीटर दूर विंध्याचल की पहाड़ी से निकलती हूं। यह वही स्थान हैं जो धार के उत्तर में स्थित काकरी-बादरी पहाड़ हैं। जो 747 मीटर ऊंचाई पर स्थित है। वहां से निकलकर में उत्तर की दिशा की ओर बहती हूं।
उत्तर दिशा में बहने वाली एकमात्र नदी हूं। जिस के किनारे पर अनेक प्रसिद्ध मंदिर स्थित है। विश्व प्रसिद्ध महाकाल का मंदिर मेरे ही किनारे पर बना हुआ है। यह वही स्थान है जिसका उल्लेख अनेक प्राचीन ग्रंथ ग्रंथों में होता है । जिसे पुराने समय में अवंतिका नाम से पुकारा जाता था। यही के सांदीपनि आश्रम में कृष्ण और बलराम ने अपनी शिक्षा पूरी की थी।
विश्व प्रसिद्ध वेधशाला इसी नगरी में स्थापित है। ग्रीनविच रेखा इसी स्थान से होकर गुजरती है। मुझ मोक्षदायिनी नदी के तट पर सिंहस्थ का प्रसिद्ध मेला लगता है। जिसमें लाखों लोग डुबकी लगाकर पुण्य कमाते हैं और मोक्ष की प्राप्ति की अपनी मनोकामना पूर्ण करते हैं।
मैं इंदौर, देवास, उज्जैन की जीवनदायिनी नदी कहलाती हूं। मेरी पवित्रता की चर्चा पूरे भारत भर में होती है। मगर, मुझे बड़े दुख के साथ कहना पड़ रहा है गत कई सालों से मेरा प्रवाह धीरे-धीरे बाधित हो रहा है। मैं ढलान रहित स्थान से बहती हूं। इस कारण मुझ में पहली जैसी सरलता, सहजता, निर्मलता तथा प्रवाह अब नहीं रह गया है।
मेरी दो सहायक नदियाँ है। एक का नाम खान नदी है। यह इंदौर से बह कर मुझ में मिलती है। दूसरी नदी गंभीरी नदी है। जो मुझ में आकर समाती है। इनकी वजह से मैं दो समस्या से जूझ रही हूं।
एक आजकल मुझ में पानी कम होता जा रहा है और गंदगी की भरमार बढ़ रही है। इसका कारण मुझ में बरसात के बाद नाम मात्र का पानी बहता है। मेरा प्रवाह हर साल कम होता जा रहा है। मैं कुछ सालों पहले कल-कल करके बहती थी। मगर आजकल मैं उथली हो गई हूं। इस कारण अब मैं बरसाती नाला बन कर रह गई हूं। इसे तालाब भी कह सकते हैं।
दूसरी समस्या यह है कि मुझ में लगातार प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। मेरा पानी लगातार गन्दा होता जा रहा है। इसका कारण यह है कि मुझमें खान नदी आकर मिलती है। यह इंदौर के गंदे नाले की गंदगी लेकर लेकर आती है जो मुझ में लगातार प्रवाहित होती है। मुझे गंदा व उथला बना रहा है।
इस पानी में प्रचुर मात्रा में धातुएं, हानिकारक पदार्थ, रसायन, ऑर्गेनिक व अपशिष्ट खतरनाक पदार्थ मुझ में लगातार मिलते रहते हैं। इसी तरह देवास के औद्योगिक क्षेत्र का चार लाख लीटर प्रदूषित जल भी मुझ में मिलता है। साथ ही मेरे किनारे पर बसे कल-कारखानों का गंदा पानी भी मुझ में निरंतर मिलता रहता है।
इन सब के कारणों से मेरा पानी पीने लायक नहीं रह गया है। ओर तो ओर यह नहाने लायक भी नहीं है। यह बदबूदार प्रदूषित पानी बनकर रह गया है। कारण, मुझ में लगातार गंदगी प्रवाहित होना है।
यही वजह है कि पिछ्ले सिंहस्थ मेले में मुझ में नर्मदा नदी का पानी लिफ्ट करके छोड़ा गया था। जिसकी वजह से गत साल सिंहस्थ का मेला बमुश्किल और सकुशल संपन्न हो पाया था। यदि बढ़ते प्रदूषण का यही हाल रहा तो एक समय मेरा नामोनिशान तक मिल जाएगा। मैं गंदा नाला बन कर रह जाऊंगी।
खैर! यह मेरे मन की पीड़ा थी। मैंने आपको बता दी है। यदि आप सब मिलकर प्रयास करें तो मुझे वापस कल-कल बहती मोक्षदायिनी शिप्रा के रूप में वापस पुनर्जीवित कर सकते हैं।
और हां, एक बात ओर हैं- मुझ में जहां 3 नदियां यानी खान, सरस्वती (गुप्त) और मैं शिप्रा नदियां- जहां मिलती हूं उसे त्रिवेणी संगम कहते हैं। इस तरह में 195 किलोमीटर का लंबा सफर तय करके चंबल में मिल जाती हूं यह वही चंबल है जो आगे चलकर यमुना नदी में मिलती है। यह यमुना नदी, गंगा में मिलकर एकाकार हो जाती हूं इस तरह मैं मालवा की मोक्षदायिनी नदी- गंगा भारत की प्रसिद्ध गंगा नदी में विलीन हो जाती हूं।
यही मेरी आत्मकथा है।
आपसे करबद्ध गुजारिश है कि मुझे बनाए रखने के लिए प्रयास जरूर करना। ताकि मैं मालवा की गंगा मालवा में कल-कल कर के सदा बहती रहूं। जय गंगे! जय शिप्रा।
© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”
24-06-2022
संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226
ईमेल – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈