श्रीमति विशाखा मुलमुले
(श्रीमती विशाखा मुलमुले जी हिंदी साहित्य की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं. आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है एक सार्थक, सशक्त एवं भावपूर्ण रचना ‘किताब‘। वास्तव में हमारा जीवन भी किसी किताब से क्या कम है ? बेहद संवेदनशील कविता । बधाई ! आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में पढ़ सकते हैं । )
☆ किताब ☆
कभी हैं किताबें मेरे सिरहाने
कभी थामा है मैंने उन्हें हाथों में
कभी सुन रही हूं मैं किताब की धड़कन
कभी धड़कन सुन रहीं है मेरी , किताबें
कभी लगता है मेरी और किताबों की ज़ुबान एक है
कभी महसूसती हूँ कि हमारी धड़कन भी तो एक हैं
कभी फ़ेरती हूँ उंगलियां जैसे शब्दों को स्पर्श कर लिया
कभी छंद उस निर्जीव का जीवंत मुझको कर गया
सोचती हूँ , कैसी होगी किताबों से पहले की दुनियाँ
किसने लिखी होगी पहली किताब
पुस्तकों का आलय बनाना किसका होगा विचार
क्या सारा ज्ञान छुपा है किताबों में या
किताबों के बाहर भी है संसार
एक चाणक्य जिसनें किताबों में रचा अर्थशास्त्र
एक कबीर जिसनें पढ़ी नहीं एक भी किताब
एक मैं जो लिख रहीं हूँ किताबों की बातें और
एक तुम जो पढ़ रहे हो मेरे जीवन की किताब
© विशाखा मुलमुले
पुणे, महाराष्ट्र