हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य – # – मृत्युपूर्व शवयात्रा की तैयारी……. ☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
(अग्रज एवं वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं। आज के साप्ताहिक स्तम्भ “तन्मय साहित्य ” में प्रस्तुत है एक व्यंग्य कविता “दूरदर्शी दिव्य सोच – बनाम – मृत्युपूर्व शवयात्रा की तैयारी…….”।
डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी ने बिना किसी लाग -लपेट के जो कहना था कह दिया और जो लिखना था लिख दिया। अब इस व्यंग्य कविता का जिसे जैसा अर्थ निकालना हो निकलता रहे। सभी साहित्यकारों के लिए विचारणीय व्यंग्य कविता। फिर आपके लिए कविता के अंत में लाइक और कमेन्ट बॉक्स तो है ही। हाँ, शेयर करना मत भूलिएगा।
आप आगे पढ़ें उसके पहले मुझे मेरी दो पंक्तियाँ तो कहने दीजिये:
अब तक का सफर तय किया इक तयशुदा राहगीर की मानिंद।
आगे का सफर पहेली है इसका एहसास न तुम्हें है न मुझको ।
- हेमन्त बावनकर )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – #6 ☆
☆ दूरदर्शी दिव्य सोच
बनाम———————
मृत्युपूर्व शवयात्रा की तैयारी……. ☆
आत्ममुखी एकाकी, 80 वर्षीय वरिष्ठ साहित्यकार के नगर में होने वाले सभी आयोजनों में उनके एकाएक सदाबहार, मुखर उपस्थिति का कारण पूछने पर उन्होंने जो बताया, सुनकर सुखद आश्चर्य से अचम्भित हुए बिना न रह सका——
“स्मृति स्मारक निर्माण, गली-मुहल्ले, चौराहे पर स्वमूर्ति स्थापना, मरणोपरांत राष्ट्रीय अलंकरण के अवसर आदि के सुंदर ख्वाब सजाए आगे की तैयारियों के तहत जीवन की सांध्यबेला में ये चहल-पहल कर भव्य शवयात्रा के अपने गुप्त एजेंडे का ज्ञान कराया उन्होंने” ।
अमरत्व प्राप्ति के उनके इस दिव्य प्रखर सूत्र से प्रभावित हो एक कविता का सृजन हुआ।
आप भी पढ़ें और अपने लिए भी कुछ सोचें :-
मृत्यु पूर्व, खुद की
शवयात्रा पर करना तैयारी है
बाद मरण के भी तो
भीड़ जुटाना जिम्मेदारी है।
जीवन भर एकाकी रह कर
क्या पाया क्या खोया है
हमें पता है, कलुषित मन से
हमने क्या क्या बोया है,
अंतिम बेला के पहले
करना कुछ कारगुजारी है।
मृत्युपूर्व खुद की शवयात्रा
पर करना………
तब, तन-मन में खूब अकड़ थी
पकड़ रसूखदारों में थी
बुद्धि, ज्ञान, साहित्य सृजन
प्रवचन, भाषण नारों में थी,
शिथिल हुआ तन, मन बोझिल
इन्द्रियाँ स्वयं से हारी है।
मृत्युपूर्व…….
होता नाम निमंत्रण पत्रक में
“विशिष्ट”, तब जाते थे
नव सिखिए, छोटे-मोटे तो
पास फटक नहीं पाते थे,
रौबदाब तेवर थे तब
अब बची हुई लाचारी है।
मृत्युपूर्व……
अब मौखिक सी मिले सूचना
या अखबारों में पढ़ कर
आयोजन कोई न छोड़ते
रहें उपस्थित बढ़-चढ़ कर,
कब क्या हो जाये जीवन में
हमने बात विचारी है।
मृत्युपूर्व…….
हंसते-मुस्काते विनम्र हो
अब, सब से बतियाते हैं
मन – बेमन से, छोटे-बड़े
सभी को गले लगाते हैं,
हमें पता है, भीड़ जुटाने में
अपनी अय्यारी है।
मृत्युपूर्व…….
मालाएं पहनाओ हमको
चारण, वंदन गान करो
शाल और श्रीफल से मेरा
मिलकर तुम सम्मान करो,
कीमत ले लेना इनकी
चुपचाप हमीं से सारी है।
मृत्युपूर्व…….
हुआ हमें विश्वास कि
अच्छी-खासी भीड़ रहेगी तब
मिशन सफल हो गया,खुशी है
रामनाम सत होगा जब,
जनसैलाब देखना, इतना
मर कर भी सुखकारी है। मृत्युपूर्व…….
हम न रहेंगे, तब भी
शवयात्रा में अनुगामी सारे
राम नाम है सत्य,
साथ, गूंजेंगे अपने भी नारे,
मरकर भी उस सुखद दृश्य की
हम पर चढ़ी खुमारी है
मृत्युपूर्व……………
शव शैया से देख हुजुम
तब मन हर्षित होगा भारी
पद्म सिरी सम्मान, प्राप्ति की
कर ली, पूरी तैयारी,
कहो-सुनो कुछ भी, पर यही
भावना सुखद हमारी है।।
© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
जबलपुर, मध्यप्रदेश