श्रीमति विशाखा मुलमुले 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है  स्त्री स्वातंत्र्य पर आधारित एक सशक्त रचना  ‘ मनसा – वाचा – कर्मणा । आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़  सकते हैं । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 34 – विशाखा की नज़र से

☆  मनसा – वाचा – कर्मणा   ☆

कुरीतियों के पंक से निकलकर

अब जाकर पंकज की तरह खिली हैं

स्त्रियाँ

पर चाहती हूँ उनके अस्तित्व

अब भी बना रहे तैलीय आवरण

 

तब तक

जब तक इस पितृसत्तात्मक समाज में

पितृ एवं सत्ता का हो न जाये विघटन

मनसा – वाचा – कर्मणा

समाज स्वीकारें स्त्रियों का स्वतंत्र अस्तित्व

जब पुरुष महसूस करे अंतःकरण से ऊष्मा

तब वह भरे प्रकृति को आलिंगन में

और स्वतःस्फूर्त ही टूट जाये तैलीय दर्पण

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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