हेमन्त बावनकर
(स्वांतःसुखाय लेखन को नियमित स्वरूप देने के प्रयास में इस स्तम्भ के माध्यम से आपसे संवाद भी कर सकूँगा और रचनाएँ भी साझा करने का प्रयास कर सकूँगा। आज प्रस्तुत है एक कविता “सेवानिवृत्ति ”। अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दीजिये और पसंद आये तो मित्रों से शेयर भी कीजियेगा । अच्छा लगेगा ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति # 19 ☆
☆ सेवानिवृत्ति ☆
सेवा
और उससे निवृत्ति
असंभव है।
फिर
कैसी सेवानिवृत्ति?
कितना आसान है?
शुष्क जीवन चक्र का
परिभाषित होना
शुभ विवाह
बच्चे का जन्म
बच्चे का लालन पालन
बच्चे की शिक्षा दीक्षा
बच्चे की नौकरी
बच्चे का शुभ विवाह
फिर
बच्चे का जीवन चक्र
जीवन चक्र की पुनरावृत्ति
फिर
हमारी सेवानिवृत्ति।
एक कालखंड तक
बच्चे के जीवन चक्र के मूक दर्शक
फिर
सारी सेवाओं से निवृत्ति
महा-सेवानिवृत्ति ।
जैसे-जैसे
हम थामते हैं
पुत्र या पौत्र की उँगलियाँ
सिखाने उन्हें चलना
ऐसा लगता है कि
फिसलने लगती हैं
पिताजी की उँगलियों से
हमारी असहाय उँगलियाँ।
जब हमारे हाथ उठने लगते हैं
अगली पीढ़ी के सिर पर
देने आशीर्वाद
ऐसा लगता है कि
होने लगते हैं अदृश्य
हमारे सिर के ऊपर से
पिछली पीढ़ी के आशीर्वाद भरे हाथ।
इस सारे जीवन चक्र में
इस मशीनी जीवन चक्र में
कहाँ खो गई
वे संवेदनाएं
जो जोड़ कर रखती हैं
रिश्तों के तार ।
“हमारे जमाने में ऐसा होता था
हमारे जमाने में वैसा होता था”
ये शब्द हर पीढ़ी दोहराती है
और
हर बार अगली पीढ़ी
मन ही मन
इस सच को झुठलाती है।
कोई पीढ़ी
जीवन के इस कडवे सच को
कड़वे घूंट की तरह पीती है
तो
कोई पीढ़ी
उसी जीवन के कड़वे सच को
बड़े प्रेम से जीती है।
इस सारे जीवन चक्र में
कहीं खो जाती हैं
मानवीय संवेदनाएं
तृप्त या अतृप्त लालसाएं
जो छूट गईं हैं
जीवन की आपाधापी में कहीं।
अतः
यह सेवानिवृत्ति नहीं
एक अवसर है
पूर्ण करने
वे मानवीय संवेदनाएं
तृप्त या अतृप्त लालसाएं
कुछ भी ना छूट पाएँ।
कुछ भी ना छूट पाये
सारी जीवित-अजीवित पीढ़ियाँ
और
वह भी
जो बस गई है
आपकी हरेक सांस में
आपके सुख दुख की संगिनी
जिसके बिना दोनों का अस्तित्व
है अस्तित्वहीन।
सेवा
और उससे निवृत्ति
असंभव है।
फिर
कैसी सेवानिवृत्ति?
© हेमन्त बावनकर, पुणे
यथार्थ रचना
सरल,सहज शब्दों में, सुंदर अभिव्यक्ति, बधाई भाई
आदरणीय बावनकर जी
रेखाचित्र उभारती,
विगत और आगत का आईना दिखाती,
चिंतनपरक रचना हेतु हृदय से बधाई।
निम्न पंक्तियाँ तो इस रचना का महत्त्वपूर्ण अंश है
कितने आसान तरीके से आपने समझा दिया कि जब हम वृद्ध होने लगते हैं तो बुजुर्गों का साया हमारे ऊपर से धीरे धीरेसिर से उठने लगता है-
“जब हमारे हाथ उठने लगते हैं
अगली पीढ़ी के सिर पर
देने आशीर्वाद
ऐसा लगता है कि
होने लगते हैं अदृश्य
हमारे सिर के ऊपर से
पिछली पीढ़ी के आशीर्वाद भरे हाथ।”
धन्यवाद एवं हार्दिक आभार