डॉ. मुक्ता
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का एक अत्यंत विचारणीय एवं प्रेरक आलेख शांति और प्रशंसा। मौन एवं ध्यान का हमारे जीवन में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है जिसका आध्यात्मिक अनुभव हमें उम्र तथा अनुभव के साथ ही मिलता है अथवा किसी अनुभवी व्यक्ति के मार्गदर्शन से मिलता है । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 56 ☆
☆ शांति और प्रशंसा ☆
मानव जीवन का प्रमुख प्रयोजन है– शांति प्राप्त करना, जिसके लिए वह आजीवन प्रयासरत रहता है। शांति बाह्य परिस्थितियों की गुलाम नहीं है, बल्कि इसका संबंध तो हमारे अंतर्मन व मन:स्थिति से होता है। जब हम स्व में स्थित हो जाते हैं, तो बाह्य परिस्थितियों का हम पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता और हम सत्, चित्, आनंद अर्थात् अलौकिक आनंद को प्राप्त कर सकते हैं। दूसरे शब्दों में मानव हृदय में दैवीय गुणों-शक्तियों का विकास होता है और वह निंदा, राग-द्वेष, स्व-पर, आत्मश्लाघा आदि दुष्प्रवृत्तियों पर विजय प्राप्त कर लेता है। आत्म- प्रशंसा करना व सुनना संसार में सबसे बड़ा दोष है, जिसका कोई निदान नहीं। यह मायाजाल युग- युगांतर से निरंतर चला आ रहा है और वह ययाति जैसे तपस्वियों को भी अर्श से फर्श पर गिरा देता है।
ययाति घोर तपस्या के पश्चात् स्वर्ग पहुंचे, क्योंकि उन्हें ब्रह्मलोक में विचरण करने का वरदान प्राप्त था; जो देवताओं की ईर्ष्या का कारण बना। एक दिन इंद्र ने ययाति की प्रशंसा की तथा उस द्वारा किए गये जप-तप के बारे में जानना चाहा। ययाति आत्म- प्रशंसा सुन फूले नहीं समाए और अपने मुख से अपनी प्रशंसा करने लगे। इंद्र ने ययाति को आसन से उतर जाने को कहा, क्योंकि उसने ऋषियों, गंधर्वों, देवताओं व मनुष्यों की तपस्या का तिरस्कार किया और वे स्वर्ग से नीचे गिर गए। परंतु उसके अनुनय- विनय पर इन्द्र ने उसे सत्पुरुषों की संगति में रहने की अनुमति प्रदान कर दी।
सो! आत्म-प्रशंसा से बचने का उपाय है मौन, जो प्रारंभ में तो कष्ट-साध्य प्रतीत होता है। परंतु धीरे- धीरे श्वास व शब्द को साधने से हृदय की चंचलता समाप्त हो जाती है और चित्त शांत हो जाता है। आती-जाती श्वास को देखने पर मन स्थिर होने लगता है और मानव को उसमें आनंद आने लगता है। यह वह दिव्य भाव है, जिससे चंचल मन की समस्त वृत्तियों पर अंकुश लग जाता है। मानव अपना समय निरर्थक संवाद व तेरी-मेरी अर्थात् पर-निंदा में समय नष्ट नहीं करता। मौन की स्थिति में मानव आत्मावलोकन करता है तथा वह संबंध- सरोकारों से ऊपर उठ जाता है। इस स्थिति में अपेक्षा-उपेक्षा के भाव का भी शमन हो जाता है। जब व्यक्ति को किसी से अपेक्षा अथवा उम्मीद ही नहीं रहती, फिर विवाद कैसा? उम्मीद सब दु:खों की जननी है। जब मानव इससे ऊपर उठ जाता है, तो भाव-लहरियां शांत हो जाती हैं; संशय व अनिर्णय की स्थिति पर विराम लग जाता है। परिणामत: मानसिक द्वंद्व को विश्राम प्राप्त होता है और दैवीय गुणों स्नेह, करूणा, सहानुभूति, त्याग आदि के भाव जाग्रत होते हैं। उसे संसार में हम सभी के तथा सब हमारे नज़र आते हैं तथा ‘सर्वेभवन्तु सुखीनाम्’ का भाव जाग्रत होता है।
मानव हरि चरणों में सर्वस्व समर्पित कर मीरा की भांति ‘मेरे तो गिरधर गोपाल, दूजो न कोय’ अनुभव कर सुक़ून पाता है। इस स्थिति में सभी भाव- लहरियों को अपनी मंज़िल प्राप्त हो जाती है तथा अहं का विगलन हो जाता हो, जो सभी दोषों की जड़ है। अहं हमारे अंतर्मन में सर्वश्रेष्ठता का भाव उत्पन्न करता है, जो आत्म- प्रशंसा का जनक है। अपने गुणों के बखान करने के असाध्य रोग से वह चाह कर भी मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकता। वह न तो दूसरे की अहमियत स्वीकारता है; न ही उसके द्वारा प्रेषित सार्थक सुझावों की ओर ध्यान देता है। सो! वह गलत राहों पर चल निकलता है। यदि कोई उसके हित की बात भी करता है, तो वह उसे शत्रु-सम भासता है और वह उसका निरादर कर संतोष पाता है। उसके शत्रुओं की संख्या में निरंतर इज़ाफ़ा होता जाता है। एक लम्बे अंतराल के पश्चात् जब उसका शरीर क्षीण हो जाता है और वह एकांत की त्रासदी झेलता हुआ तंग आ जाता है, तो उसे अपने घर व परिवार-जनों की स्मृति आती है। वह लौटना चाहता है, अपनों के मध्य… परंतु उसके हाथ निराशा ही लगती है और उसे प्रायश्चित करने के अतिरिक्त अन्य विकल्प नज़र नहीं आता। वह सांसारिक ऊहापोह व मायाजाल से निज़ात पाना चाहता है; चैन की सांस लेना चाहता है, परंतु यह उसके लिए संभव नहीं होता। उसे लगता है, वह व्यर्थ ही धन कमाने हित उचित- अनुचित राहों पर चलता रहा, जिसकी अब किसी को दरक़ार नहीं। वह न पहले शांत था, न ही उसे अब सुक़ून प्राप्त होता है। वह शांति पाने का हर संभव प्रयास करता रहा, परंतु अतीत की स्मृतियां ग़ाहे-बेग़ाहे उसके हृदय को उद्वेलित-विचलित करती रहती हैं। वह चाह कर भी इनके शिकंजे से मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता। अंत में इस जहान से रुख्स्त होने से पहले वह सबको इस तथ्य से अवगत कराता है कि सुख-शांति अपनों के साथ है। सो! संबंधों की अहमियत स्वीकारो…आत्म-प्रशंसा की भूल-भुलैया में फंस कर अपना अनमोल जीवन नष्ट न करो। सच्चे दोस्त संजीवनी की तरह होते हैं, उनकी तलाश करो। वे हर आकस्मिक आपदा व विषम परिस्थिति में आपकी अनुपस्थिति में भी आपकी ढाल बन कर खड़े रहते हैं।
© डा. मुक्ता
माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।
पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी, #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com
मो• न•…8588801878
सुंदर रचना