श्री संजय भारद्वाज
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।
श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
प्रश्न – सोशल मीडिया से हिंदी साहित्य के प्रसार में कुछ बढ़ावा मिला है?
उत्तर – केवल हिंदी साहित्य ही नहीं अपितु हर भाषा और बोली के साहित्य को सोशल मीडिया से लाभ हुआ है। इससे पहले अपने सृजन को लोगों तक पहुँचाने के पारम्परिक माध्यम सीमित थे। अभिव्यक्ति के लिए पत्र-पत्रिकाओं, सरकारी प्रसार माध्यमों और सार्वजनिक मंचों तक सीमित रहना पड़ता था। यहाँ तक पहुँचना प्रत्येक के लिए संभव भी नहीं था। सोशल मीडिया एक ऐसे मंच के रूप में उभरा जहाँ हर कोई अपने मन की बात कह सकता है।
प्रश्न – सोशल मीडिया पर प्रसारित होनेवाले हिंदी साहित्य का दर्जे के बारे में आपकी क्या राय है?
उत्तर- जहाँ तक बात स्तर की है, मैं इसे कुछ हद तक सापेक्ष या रिलेटिव टर्म कहूँगा। संभव है कि किसी पत्र या पत्रिका की एक विशिष्ट सोच या विचारधारा अथवा व्यावसायिक हितों के चलते एक ही तरह का साहित्य प्रकाशित करने की प्रवृत्ति हो। ऐसे में दूसरी धारा का साहित्य उस पत्रिका में स्थान नहीं पाएगा। क्या इसका अर्थ यह है होगा कि दूसरी धारा के साहित्य का कोई स्तर नहीं है? स्थूल तौर पर इस बात से सहमत हुआ जा सकता है कि सोशल मीडिया एक ऐसा मंच है जो नवोदितों से लेकर लब्ध-प्रतिष्ठित साहित्यकारों तक सबके लिए खुला है। हाँ यह अवश्य है कि स्वतंत्रता का अर्थ उच्छृंखलता नहीं होना चाहिए। अश्लील और वीभत्स लेखन से बचा जाना चाहिए। यूँ देखा जाए तो इस श्रेणी का लेखन समाज के हित में न होने के कारण साहित्य ही नहीं है। अश्लील लेखन पर नियंत्रण रखने का दायित्व सम्बंधित व्यक्ति के साथ-साथ सोशल मीडिया पर उससे जुड़े उसके मित्रों का भी है।
प्रश्न – लिखने वालों को लिए क्या यह एक बड़ा व्यासपीठ उपलब्ध हुआ है?
उत्तर- लिखने वालों के लिए सोशल मीडिया एक बहुत बड़ा मंच है। लेखक होने के नाते मैं इस बात को बेहतर समझ सकता हूँ कि अनुभूति का लिखित या टंकित शब्दों में अभिव्यक्त होना रचनाकर्म का एक भाग है। दूसरा भाग है, रचनाकार की अपनी रचना को पाठकों के साथ साझा करने की इच्छा। इसके बाद पाठक की प्रतिक्रिया आती है। पारम्परिक पद्धति में लम्बा समय लेनेवाली यह प्रक्रिया अब एक क्लिक के द्वारा हो जाती है। यह बहुत बड़ा सकारात्मक और क्रांतिकारी परिवर्तन है।
प्रश्न – क्या कुछ ख़ामियाँ भी आपको नज़र आती हैं?
उत्तर- जगत में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे आप शत-प्रतिशत सही कह सकें। फिर सही, गलत भी सापेक्ष होता है और अपनी-अपनी दृष्टि के अनुसार परिभाषित होता है। सर्वसामान्य रूप से देखने का प्रयास करें तो सोशल मीडिया की अपनी ख़ामियाँ निश्चित तौर पर हैं। बहुत बार जल्दी से अभिव्यक्त करने की कोशिश में अपरिपक्व, बेहद अपरिपक्व साहित्य आ जाता है। इसे मैं ‘इमैच्योर बेबी’ कहूँगा। दूसरी बड़ी ख़ामी प्रत्यक्ष नियंत्रण की अपनी सीमाओं के कारण साहित्य के नाम पर अश्लील और विकृत लेखन परोस देने की वृत्ति भी है। कुछ अन्य ख़ामियाँ भी हैं।
प्रश्न- सोशल मीडिया और साहित्य विषयक गंभीरता इस पर आपकी क्या राय है?
उत्तर- आज अनेक नए स्तरीय रचनाकार जो चर्चा में हैं, वे सोशल मीडिया की देन हैं। बदले दौर में गंभीर साहित्य को मुख्यधारा तक पहुँचाने और युवतर पाठकों को मुख्यधारा तक लाने का का श्रेय सोशल मीडिया को ही है। जिन पुस्तकों को ढूँढ़ने में महीनों बीत जाते थे, आज ऐसे अनेक प्लेटफॉर्म है जिन पर वे पुस्तकें यूनिकोड या पीडीएफ फॉर्मेट में सहज उपलब्ध हैं। वेद, उपनिषद से लेकर इस क्षण रचा गया साहित्य, सभी कुछ उपलब्ध है इस महाकुम्भ में। संत कबीर ने लिखा है, ‘जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ।’ पाठक को तय करना है कि उसे क्या चाहिए और कितनी गहरी डुबकी लगानी है।
प्रश्न- सोशल मीडिया पर प्रसारित होनेवाले हिंदी साहित्य में व्याकरण एवं शुद्धलेखन की स्थिति कैसी है?
उत्तर- मेरे पास अनेक पुस्तकें भूमिका या अभिमत लिखने के लिए आती हैं। स्वयं भी प्रकाशन के व्यवसाय से जुड़ा हूँ। जहाँ तक बात व्याकरण और वर्तनी की त्रुटियों की है तो सोशल मीडिया नहीं था, क्या तब व्याकरण और वर्तनी की त्रुटियाँ नहीं थीं? इन त्रुटियों का सोशल मीडिया से क्या संबंध? यह तो संबंधित व्यक्ति के भाषाई ज्ञान पर निर्भर करता है। मेरे पास आने वाली पुस्तकों के आधार पर मैं कह सकता हूँ कि अधिकांश पांडुलिपियों में वर्तनी की अनेक त्रुटियाँ होती हैं। पाठशाला या महाविद्यालय के स्तर पर देवनागरी को दुय्यम रखने और जिज्ञासु की अनास्था, दोनों का समवेत दुष्परिणाम है यह। इसे सोशल मीडिया के मत्थे मढ़ना तर्कसंगत नहीं। यदि इसका दूसरा पहलू देखें तो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर ऑटो स्पेलचेक की सुविधा शुद्ध वर्तनी के प्रयोग का अवसर उपलब्ध कराती है।
एक बात और, सोशल मीडिया साधन है साध्य नहीं। दूसरे, इसका प्रयोग करने की किसी पर बाध्यता नहीं है। सोशल मीडिया की महत्ता को समझने के लिए एक प्रयोग करें। कल्पना करें कि सोशल मीडिया का अस्तित्व समाप्त कर दिया गया है। अब आप फिर से कागज पर लिखें। फिर से कुछ चुनिंदा पत्र-पत्रिकाओं को भेजें। फिर से सरकारी प्रसार माध्यमों के चक्कर लगाएँ। क्या आप यह सब करने के लिए तैयार हैं? 130 करोड़ के देश में कितने लोगों को मंच उपलब्ध होगा? कितनी प्रतिभाएँ दम तोड़ जाएँगी?
गरदन, एक सीमा तक ही पीछे घुमाई जा सकती है। ईश्वर ने मनुष्य को आँखें आगे देखने के लिए दी हैं। संकेत स्पष्ट है, अतीत के मुकाबले भविष्य की ओर देखा जाए। आज सोशल मीडिया, साहित्यकारों और सृजनशील लोगों के लिए घर बैठे एक क्लिक पर उपलब्ध अभिव्यक्ति का अद्भुत प्लेटफार्म है। आनेवाला समय, इससे अधिक गतिशील और अधिक उपयोगी प्लेटफार्म का होगा। स्मरण रहे कि परिवर्तन एकमात्र नियम है जो कभी परिवर्तित नहीं होता। परिवर्तन के साथ चलें, समय के साथ चलें।
© संजय भारद्वाज
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मोबाइल– 9890122603