डॉ. मुक्ता
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का एक अत्यंत विचारणीय आलेख वक्त, दोस्त व रिश्ते। इस गंभीर विमर्श को समझने के लिए विनम्र निवेदन है यह आलेख अवश्य पढ़ें। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 62 ☆
☆ वक्त, दोस्त व रिश्ते☆
‘वक्त, दोस्त व रिश्ते हमें मुफ़्त में मिलते हैं। पर इनकी कीमत का पता, हमें इनके खो जाने के पश्चात् होता है और वक्त, ख्वाहिशें और सपने हाथ में बंधी घड़ी की तरह होते हैं, जिसे उतार कर कहीं भी रख दें, तो भी चलती रहतीं है।’ दोनों स्थितियों में विरोधाभास है। वास्तव में ‘वक्त आपको परमात्मा ने दिया है और जितनी सांसें आपको मिली हैं ,उनका उपयोग-उपभोग आप स्वेच्छा से कर सकते हैं। यह आप पर निर्भर करता है कि आप उन्हें व्यर्थ में खो देते हैं या हर सांस का मूल्य समझ एक भी सांस को रखते व्यर्थ नहीं जाने देते। आप जीवन का हर पल प्रभु के नाम-स्मरण में व्यतीत करते हैं और सदैव दूसरों के हित में निरंतर कार्यरत रहते हैं। यह आपके अधिकार-क्षेत्र में आता है कि आप वर्तमान में शुभ कर्म करके आगामी भविष्य को स्वर्ग-सम सुंदर बनाते हैं या बुरे कर्म करने के पश्चात् नरक के समान यातनामय बना लेते हैं। वर्तमान में कृत-कर्मों का शुभ फल, आपके आने वाले कल अर्थात् भविष्य को सुंदर व सुखद बनाता है।
वक्त निरंतर चलता रहता है, कभी थमता नहीं और आप लाख प्रयत्न करने व सारी दौलत देकर, उसके बदले में एक पल भी नहीं खरीद सकते। जीवन की अंतिम वेला में इंसान अपनी सारी धन-संपदा देकर, कुछ पल की मोह़लत पाना चाहता है, जो सर्वथा असंभव है।
इसी प्रकार दोस्त, रिश्ते व संबधी भी हमें मुफ़्त में मिलते हैं; हमें इन्हें खरीदना नहीं पड़ता। हां! अच्छे- बुरे की पहचान अवश्य करनी पड़ती है। इस संसार में सच्चे दोस्त को ढूंढना अत्यंत दुष्कर कार्य है, क्योंकि आजकल सब संबंध स्वार्थ पर टिके हैं। जहां तक रिश्तों का संबंध है, कुछ रिश्ते जन्मजात अर्थात् प्रभु-प्रदत्त होते हैं, जिन्हें आप चाह कर भी बदल नहीं सकते। वे संबंधी अच्छी व बुरी प्रकृति के हो सकते हैं और उनके साथ निर्वाह करना अनिवार्य ही नहीं, आपकी विवशता होती है। परंतु आजकल तो रिश्तों को ग्रहण लग गया है। कोई भी रिश्ता पावन नहीं रहा। खून के रिश्ते–माता-पिता, भाई-बहन, पति-पत्नी व विश्वासपात्र दोस्त का मिलना अत्यंत दुष्कर है, टेढ़ी खीर है। आधुनिक युग प्रतिस्पर्द्धात्मक युग है, जहां चारों ओर संदेह, शक़ व अविश्वास का दबदबा कायम है। गुरु-शिष्य, पिता-पुत्री व भाई-बहिन के संबंध भी विश्वास के क़ाबिल नहीं रहे। जहां समाज में अराजकता व विश्रंखलता का वातावरण व्याप्त है, वहां मासूम बच्चियों से लेकर वृद्धा तक की अस्मत सुरक्षित नहीं है। वे उपभोग व उपयोग की वस्तु-मात्र बनकर रह गयी हैं। आजकल हर रिश्ते पर प्रश्नचिन्ह लगा है और सब कटघरे में खड़े हैं।
हां! आजकल दोस्ती की परिभाषा भी बदल गई है। कोई व्यक्ति बिना स्वार्थ के, किसी से बात करना भी पसंद नहीं करता। आजकल तो ‘हैलो-हॉय’ भी पद- प्रतिष्ठा देखकर की जाती है। वैसे तो हर इंसान आत्म-मुग्ध अथवा अपने में व्यस्त है तथा उसे किसी की दरक़ार नहीं है। कृष्ण-सुदामा जैसी दोस्ती की मिसाल तो ढूंढने पर भी नहीं मिलती। आजकल तो दोस्त अथवा आपका क़रीबी ही आपसे विश्वासघात करता है…आपकी पीठ में छुरा घोंपता है, क्योंकि वह आपकी रग-रग से वाकिफ़ होता है। विश्व अब ग्लोबल-विलेज बन गया है तथा भौगोलिक दूरियां भले ही कम हो गई हैं, परंतु दिलों की दूरियां इस क़दर बढ़ गई हैं कि उन्हें पाटना असंभव हो गया है। हर इंसान कम से कम समय में अधिकाधिक धन-संग्रह करना चाहता है और उसके लिए वह घर-परिवार व दोस्ती को दाँव पर लगा देता है। इसमें शक़ भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। शक़ दिलों में दरारें उत्पन्न कर देता है, जिसका जन्म अनास्था व अविश्वास से होता है। विश्वास तो न जाने पंख लगा कर कहां उड़ गया है, जिसे तलाशना अत्यंत दुष्कर है। परंतु इसका मुख्य कारण है … कानों-सुनी बात पर विश्वास करना। सो! संदेह हृदय में ऐसी खाई उत्पन्न कर देता है, जिसे पाटना असंभव हो जाता है। शायद! हम कबीरदास जी को भुला बैठे है… उन्होंने आंखिन-देखी पर विश्वास करके शाश्वत साहित्य की रचना की, जो आज भी विश्व-प्रसिद्ध है। शुक्ल जी ने भी यही संदेश दिया है कि जब भी आप बात करें, धीरे से करें, क्योंकि तीसरे व्यक्ति के कानों तक वह बात नहीं पहुंचनी चाहिए। परंतु दोस्ती में संबंधों की प्रगाढ़ता होनी चाहिए; जो आस्था, निष्ठा व विश्वास से पनपती है।
यदि आप दूसरों की बातों पर विश्वास कर लेंगे, तो आपके हृदय में क्रोध-रूपी अग्नि प्रज्वलित हो जाएगी… आप अपने मित्र को बुरा-भला कहने लगेंगे तथा उसके प्रति विद्वेष की भावना से भर जायेंगे। आप सबके सम्मुख उसकी निंदा करने लगेंगे और समय के साथ मैत्रीभाव शत्रुता के भाव में परिणत हो जायेगा। परंतु जब आप सत्यान्वेषण कर उसकी हक़ीक़त से रू-ब-रू होंगे… तो बहुत देर हो चुकी होगी और संबंधों में पुन: अक्षुण्ण प्रगाढ़ता नहीं आ पायेगी। उस स्थिति में आपके पास प्रायश्चित करने के अतिरिक्त अन्य विकल्प शेष नहीं रहेगा।
परंतु वक्त, दोस्त व रिश्तों की कीमत का पता, इंसान को उनके खो जाने के पश्चात् ही होता है और गुज़रा हुआ समय कभी लौटकर नहीं आता। इसलिए समय को सबसे अनमोल धन कहा गया है और उसकी कद्र करने की नसीहत दी गयी है। समय का सदुपयोग कीजिए …उसे व्यर्थ नष्ट मत कीजिए। खूब परिश्रम कीजिए तथा तब तक चैन से मत बैठिये, जब तक आपको मंज़िल नहीं मिल जाती। वक्त, ख्वाहिशें व सपने जीने का लक्ष्य होते हैं तथा उन्हें जीवित रखना ही जुनून है, ज़िंदगी जीने का सलीका है, मक़सद है। समय निरंतर नदी की भांति अपने वेग से बहता रहता है। इच्छाएं, ख्वाहिशें, आशाएं व आकांक्षाएं अनंत हैं…सुरसा के मुख की भांति फैलती चली जाती हैं। एक के पश्चात् दूसरी का जन्म स्वाभाविक है और बावरा मन इन्हें पूरा करने के निमित्त संसाधन जुटाने में अपना पूरा जीवन नष्ट कर देता है, परंतु इनका पेट नहीं भरता। इसी प्रकार मानव नित्य नये स्वप्न देखता है तथा उन्हें साकार करने में आजीवन संघर्षरत रहता है। मानव अक्सर दिवा-स्वप्नों के पीछे भागता रहता है। उसके कुछ स्वप्न तो फलित हो जाते हैं और शेष उसके हृदय में कुंठा का रूप धारण कर, नासूर-सम आजीवन सालते रहते हैं। यहां अब्दुल कलाम जी की यह उक्ति सार्थक प्रतीत होती है कि ‘मानव को खुली आंखों से स्वप्न देखने चाहिएं तथा उनके पूरा होने से पहले अथवा मंज़िल को प्राप्त करने से पहले मानव को सोना अर्थात् विश्राम नहीं करना चाहिए, निरंतर संघर्षरत रहना चाहिए ।’
ख्वाहिशों व सपनों में थोड़ा अंतर है। भले ही दोनों में जुनून होता है; कुछ कर गुज़रने का …परंतु विकल्प भिन्न होते हैं। प्रथम में व्यक्ति उचित-अनुचित में भेद न स्वीकार कर, उन्हें पूरा करने के निमित्त कुछ भी कर गुज़रता है, जबकि सपनों को पूरा करने के लिए, घड़ी की सुइयों की भांति अंतिम सांस तक लगा रहता है।
सो! वक्त की क़द्र कीजिए तथा हर पल को अंतिम पल समझ उसका सदुपयोग कीजिए…जब तक आपके सपने साकार न हो सकें और आपकी इच्छाएं पूरी न हो सकें । इसके लिए अच्छे-सच्चे दोस्त तलाशिए; भूल कर भी उनकी उपेक्षा मत कीजिए, क्योंकि सच्चा दोस्त हृदय की धड़कन के समान होता है। विपत्ति के समय सबसे पहले वह ही याद आता है। सो! उसके लिए मानव को अपने प्राण तक न्योछावर करने को सदैव तत्पर रहना अपेक्षित है। इसलिए संबंधों की गहराई को अनुभव कीजिए और उन्हें जीवंत रखने का हर संभव प्रयास कीजिए …जब तक वे आपके लिए हानिकारक सिद्ध न हो जाएं, संबंधों का निर्वहन कीजिए। इसके लिए त्याग व बलिदान करने को सदैव तत्पर रहिए, क्योंकि रिश्तों की माला टूटने पर उसके मनके बिखर जाते हैं तथा उनमें दरार रूपी गांठ पड़ना स्वाभाविक है। लाख प्रयत्न करने पर भी उसका पूर्ववत् स्थिति में आ पाना असंभव हो जाता है। सो! संबंधों को सहज रूप में विकसित व पुष्पित होने दें। सदैव अपने मन की सुनें तथा दूसरों की बातें सुन कर हृदय में मनोमालिन्य को दस्तक न देने दें, ताकि संबंधों की गरिमा व गर्माहट बरक़रार रहे। यदि ऐसा संभव न हो, तो उन्हें तुरंत अथवा एक झटके में तोड़ डालें। सो! सहज भाव से ज़िंदगी बसर करें। हृदय में स्व- पर व राग-द्वेष के भावों को मत पनपने दें। अपनों का साथ कभी मत छोड़ें तथा सदैव परोपकार करें। लोगों की बातों की ओर ध्यान न दें। दोस्तों को उनके दोषों के साथ स्वीकारना उत्तम, बेहतर व श्रेयस्कर है, क्योंकि कोई भी व्यक्ति पाक़-साफ़ नहीं होता। यदि आप ऐसे शख़्स की तलाश में निकलेंगे, तो नितांत अकेले रह जायेंगे। वैसे भी वस्तु व व्यक्ति के अभाव अथवा न रहने पर ही उनकी कीमत अनुभव होती है। उस स्थिति में उसे पाने का अन्य कोई विकल्प शेष नहीं रहता। ‘जाने वाले चाहे वे दिल से जाएं या जहान से…कभी लौट कर नहीं आते।’ सो! जो गुज़र गया, कभी लौटता नहीं… यह कल भी सत्य था, आज भी सत्य है और कल अथवा भविष्य, जो वर्तमान बन कर आता है… वह सदैव सत्य ही होगा। इसलिये हर पल को जी लो, सत्कर्म करो तथा अपनी ज़िंदगी को सार्थक बनाओ। यह आपकी सोच व नज़रिये पर निर्भर करता है कि आप विषम परिस्थितियों में कितने सम रहते हैं। सो! सकारात्मक सोच रखिए, अच्छा सोचिए और अच्छा कीजिए… उसका परिणाम भी शुभ व मंगलमय होगा, सर्वहिताय होगा।
© डा. मुक्ता
माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।
पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी, #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com
मो• न•…8588801878
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈