श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  राजभाषा माह के अंतर्गत एक विशेष आलेख  भाषायें  अनुपूरक होती हैंं ।  इस विचारणीय समसामयिक आलेख के लिए श्री विवेक रंजन जी  का  हार्दिकआभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 72 ☆

☆ राजभाषा विशेष – भाषायें  अनुपूरक होती हैंं ☆

चरित्र प्रमाण पत्र का अपना महत्व होता है, स्कूल से निकलते समय हमारे  मा

 

 

 

संविधान सभा में देवनागरी में लिखी जाने वाली हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दिया गया है. स्वाधीनता आन्दोलन के सहभागी रहे हमारे नेता जिनके प्रयासो से हिन्दी को राजभाषा के रूप में स्वीकार किया गया  आखिर क्यो चाहते थे कि हिन्दी  केन्‍द्र और प्रान्तों के बीच संवाद की भाषा बने? स्पष्ट है कि वे एक लोकतांत्रिक राष्ट्र का सपना देख रहे थे जिसमें जनता की भागीदारी सुनिश्चित करनी थी. उन मनीषियो ने एक ऐसे नागरिक की कल्पना थी जो बौद्धिक दृष्टि से तत्कालीन राजकीय  संपर्क भाषा अंग्रेजी का पिछलग्‍गू नहीं, बल्कि आत्मनिर्भर हो.  यही स्वराज अर्थात अपने ऊपर अपना ही शासन की अवधारणा की संकल्पना  भी थी.  इस कल्पना में आज भी वही शक्ति है.  इसमें आज भी वही राष्ट्रीयता का आकर्षण है.

आजादी के बाद से आज तक अगर एक नजर डालें तो हमें दिखता है कि भारत की जनसँख्या का एक बड़ा हिस्सा इस बीच हिन्दी, उर्दू, मराठी, गुजराती, कन्नड़, तमिल, तेलगू आदि भारतीय भाषाओं के माध्यम से ही साक्षर हुआ है. आजादी के समय 100 में 12 लोग साक्षर थे,  आज साक्षरता का स्तर बहुत बढ़ा है.  इस बीच भारत की आबादी भी बहुत अधिक बढ़ी है,अर्थात आज ऐसे लोगों की संख्या बहुत अधिक है जो हिन्दी में पढ़ना-लिखना जानते हैं.

हिन्दी आज ३० से अधिक देशो में ८० करोड़ लोगो की भाषा  है.विश्व हिन्दी सम्मेलन सरकारी रूप से आयोजित होने वाला हिन्दी पर केंद्रित  महत्वपूर्ण आयोजन है.  यह सम्मेलन प्रत्येक तीसरे वर्ष आयोजित किया जाता है। इस वर्ष यह आयोजन मारीशस में आयोजित हो रहा है.वैश्विक स्तर पर भारत की इस प्रमुख भाषा के प्रति जागरुकता पैदा करने, समय-समय पर हिन्दी की विकास यात्रा का मूल्यांकन करने, हिन्दी साहित्य के प्रति सरोकारों को मजबूत करने, लेखक-पाठक का रिश्ता प्रगाढ़ करने व जीवन के विवि‍ध क्षेत्रों में हिन्दी के प्रयोग को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से 1975 से विश्व हिन्दी सम्मेलनों की श्रृंखला आरंभ हुई है । हिन्दी को वैश्विक सम्मान दिलाने की  परिकल्पना को पूरा करने की दिशा में विश्वहिन्दी सम्मेलनो की भूमिका निर्विवाद है.

सम्मेलन में विश्व भर से हि्दी अनुरागी भाग लेते हैं. जिनमें गैर हिन्दी मातृ भाषी ‘हिन्दी विद्वान’ भी शामिल होते हैं। 1975 में नागपुर में पहला विश्व हिन्दी सम्मेलन राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के सहयोग से  संपन्न हुआ था,  जिसमें विनोबा जी ने हिन्दी को विश्व स्तर पर प्रतिष्ठित किये जाने हेतु संदेश भेजा था. उसके बाद मॉरीशस, ट्रिनिदाद एवं टोबैको, लंदन, सूरीनाम में ऐसे सम्मेलन हुए।  इनमें से कम से कम चार सम्मेलनों में संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी को आधिकारिक भाषा के रूप स्थान दिलाये जाने संबंधी प्रस्ताव पारित भी हुए.

यह सम्मेलन प्रवासी भारतीयों के ‍लिए बेहद भावनात्मक आयोजन होता है. क्योंकि ‍भारत से बाहर रहकर हिन्दी के प्रचार-प्रसार में वे जिस समर्पण और स्नेह से भूमिका निभाते हैं उसकी मान्यता और प्रतिसाद भी उन्हें इसी सम्मेलन में मिलता है. निर्विवाद रूप से देश से बाहर और देश में भी हम सब को एकता के सूत्र में जोड़ने में हिन्दी की व्यापक भूमिका है. अनेक हिन्दी प्रेमियो के द्वारा निजी व्यय व व्यक्तिगत प्रयासो से विश्व हिन्दी सम्मेलन जैसे सरकारी आयोजनो के साथ ही समानान्तर प्रयास भी किये जा रहे हैं.  स्वंयसेवी आधार पर हिंदी-संस्कृति का प्रचार-प्रसार, भाषायी सौहार्द्रता तथा सामूहिक रूप से सांस्कृतिक अध्ययन-पर्यटन सहित एक दूसरे से अपरिचित सृजनरत रचनाकारों के मध्य परस्पर रचनात्मक तादात्म्य के लिए अवसर उपलब्ध कराना भी ऐसे आयोजनो का उद्देश्य है. इस तरह के प्रयास  समर्पित हिन्दी प्रेमियो का एक यज्ञ हैं. विश्व हिन्दी सम्मेलनो की प्रासंगिकता हिन्दी को विश्व  स्तर पर प्रतिष्ठित करने में है.प्रायः ऐसे सम्मेलनो में हिस्सेदारी और सहभागिता प्रश्न चिन्ह के घेरे में रहती है क्योकि लेखक, रचनाकार, साहित्यकार होने के कोई मापदण्ड निर्धारित नही किये जा सकते. सत्ता पर काबिज लोग अपने लोगो को हिन्दी के ऐसे पवित्र यझ्ञ के माध्यम से उपकृत करने से नही चूकते.यही हाल हिन्दी को लेकर सरकारी सम्मानो और पुरस्कारो का भी रहता है. वास्तविक रचनाधर्मी अनेक बार स्वयं को ठगा हुआ महसूस करता है. अस्तु.

शहरों, छोटे कस्बों तथा ग्रामीण क्षेत्रों में भी आज मोबाइल के माध्यम से इन्टरनेट का उपयोग बढ़ता जा रहा है. ऐसे में इस नये संपर्क माध्यम को हिन्दी सक्षम बनाना, हिन्दी में तकनीकी, भाषाई, सांस्कृतिक जानकारियां इंटरनेट पर सुलभ करवाने के व्यापक प्रयास आवश्यक हैं. सरल हिंदी के माध्यम से विद्यार्थियों, शिक्षकों, व्यापारियों एवं जन सामान्य हेतु  व्यापार के नए आयाम खोज रहे हर एक हिंदी भाषी भारतीय का न सिर्फ ज्ञान वर्धन बल्कि एक सफल भविष्य-वर्धन अति आवश्यक है. विकसित एवं विकासशील राष्ट्रों में ऐसे कई उदाहरण हैं जहाँ व्यापारियों ने एक छोटी सी सोच को बड़ा व्यापार बनाया है. भाषा का इसमें बड़ा योगदान रहा है. चिंतन मनन हिन्दी के अनुकरण प्रयोग को बढ़ावा देने, विचारों को जागृत करना ही विश्व हिन्दी सम्मेलनो, हिन्दी दिवस के आयोजनो का मूल उद्देश्य  है.

प्रायः जब भी हिन्दी की बात होती है तो इसे अंग्रेजी से तुलनात्मक रूप से देखते हुये क्षेत्रीय भाषाओ की प्रतिद्वंदी के रूप में प्रस्तुत किया जाता है. यह धारणा नितांत गलत है. आपने कभी भी हाकी और फुटबाल में, क्रिकेट और लान टेनिस में या किन्ही भी खेलो में परस्पर प्रतिद्वंदिता नही देखी होगी. सारे खेल सदैव परस्पर अनुपूरक होते हैं, वे शारीरिक सौष्ठव के संसाधन होते हैं, ठीक इसी तरह भाषायें अभिव्यक्ति का माध्यम होती हैं, वे संस्कृति की संवाहक होती हैं वे परस्पर अनुपूरक होती हैंं प्रतिद्वंदी तो बिल्कुल नही यह तथ्य हमें समझने और समझाने की आवश्यकता है. इसी उदार समझ से ही हिन्दी को राष्ट्र भाषा का वास्तविक दर्जा मिल सकता है.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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