हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 2 ☆ बांसुरी ☆ – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा ☆
सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा
(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर (सिस्टम्स) महामेट्रो, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी कविता “बांसुरी”। )
साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 2
☆ बांसुरी ☆
मैं तो बस
एक बांस की बांसुरी थी,
मेरा कहाँ कोई अस्तित्व था?
तुम्हारे ही होठों से बजती थी,
तुम्हारे ही हाथों पर सजती थी
और तुम्हारे ही उँगलियों से
मेरी धुन सुरीली होती थी!
जब
छोड़ देते थे तुम मुझे,
मैं किसी सूने कमरे के सूने कोने में
सुबक-सुबककर रोती थी,
और जब
बुला लेते थे तुम पास मुझे
मैं ख़ुशी से गुनगुनाने लगती थी!
ए कान्हा!
तुम तो गाते रहे प्रेम के गीत
सांवरी सी राधा के साथ;
तुमने तो कभी न जाना
कि मैं भी तुमपर मरती थी!
कितनी अजब सी बात है, ए कान्हा,
कि जिस वक़्त तुमने
राधा को अलविदा कहा
हरे पेड़ों की छाँव में,
और तुम चले गए समंदर के देश में,
मैं भी कहीं लुप्त हो गयी
तुम्हारे होठों से!
राधा और मैं
शायद दोनों ही प्रेम के
अनूठे प्रतिबिम्ब थे!
© नीलम सक्सेना चंद्रा
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