डॉ भावना शुक्ल
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 28 साहित्य निकुंज ☆
☆ उलझन ☆
(मन के भावों से एक प्रयास उलझन विषय पर)
मैं आज
कुछ बताना चाहती हूं
उलझन को सुलझाना चाहती हूं
मैं सोच रही हूं
उन लम्हों को
जिनको तुम्हारे साथ जिया है
लगा यूं अमृत का घूंट पिया है
मैंने
उन सहजे हुए पल को
अलमारी में रखा है
जब मन करता है
तब उन्हें उलट पलट कर देख लेती हूं।
वो लम्हा जी लेती हूं
आज उलटते हुए
मन हुआ
अंतर्मन ने छुआ
हूं आज मैं गहन उलझन में
शायद तुम ही
सुलझा सको इन्हें
क्या ?
तुम्हारे दिल के किसी कोने में
मेरी महक बाकी है।
मैं अब इस उलझन से निजात चाहती हूं
क्या तुम मुझे अपनाकर
अपने गुलदान की
शोभा बनाओगे
अपने घर आंगन को महकाओगे।
प्रिये
कहो फिर से कहो
ये सुनने के लिए
कान तरस गए
नैन बरस गए
हमने सोचा तुमने
मेरे अहसासों को
नहीं किया स्पर्श
स्पंदन को नहीं छुआ
लेकिन
तुमने महसूस किया
मेरे अहसास को
न जाने कितनी पीड़ा थी
मन में
थी कितनी उलझन
अब
किया तुमने समर्पण।
© डॉ.भावना शुक्ल
सहसंपादक…प्राची
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