डॉ भावना शुक्ल
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 22 साहित्य निकुंज ☆
☆ डॉ राम दरश मिश्र जी से डॉ.भावना शुक्ल की बातचीत☆
(एक लेखक की हैसियत से कविता ही मेरे बहुत निकट रही )
हिंदी साहित्य के वरिष्ठ और श्रेष्ठ साहित्यकार, विविध विधाओं में सिद्धहस्त, पुरोधा पीढ़ी के साहित्यकार, आलोचक की दृष्टि रखने वाले, बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी डॉ. रामदरश मिश्र जी जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन रचना-कर्म में पूरी सक्रियता और मनोयोग से लगाया और जो भी हिंदी साहित्य को दिया वो प्रेरणादायी है।
आपने अनेक कविता संग्रह ,कहानी संग्रह ,अनेक उपन्यास ,समीक्षा,ललित निबंध,यात्रा वृतांत ,डायरी ,आत्मकथा ,आलोचना, संस्मरण ,संचयन संपादन आदि हिंदी साहित्य को भेंट किये। आपके लेखन में गाँव की मिटटी की गंध समाहित है। आप विविध विधाओं के निष्णात आज आयु के दसवें दशक में भी गति शील है।
अनेक पुरस्कार से सम्मानित मिश्र जी को अभी हाल ही में “आग की हँसी” के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया।
जब मै उनसे मिली तो मुझे ऐसा लगा जैसे मेरा सपना साकार हो गया हो। जिन्हें मैंने बचपन में पढ़ा और फिर पढाया आज मै उनका साक्षात् दर्शन कर रही हूँ और उनकी कविता उनके मुख से सुन रही हूँ। ये मेरे लिए बहुत हो गौरव की बात है।प्रस्तुत है उनके साथ की गई बातचीत के अंश …………
डॉ.भावना शुक्ल – अभी-अभी आपने बताया आपका गज़ल संग्रह आ रहा है हम यहीं से शुरुवात करते है आप हमें नए ग़ज़ल संग्रह में से कुछ अंश ग़ज़ल के सुनाइये।
डॉ राम दरश मिश्र – भावना बेटी मैंने बातों के दौरान कविताये तो सुना डाली पर ग़ज़ल नहीं सुनाई। मेरे मन की बात कही| मुझे बहुत पसंद है …………
याद आना था न ,पर याद आया ,
एक भूला-सा पहर याद आया।
बेचते-बेचते गया थक मै ,
आज बाज़ार में घर याद आया।
पाया क्या-क्या न मगर क्या खोकर,
भूल बैठा हूँ, ठहर , याद आया।
भूल बैठा था जिसे पा मंजिल,
कच्चे रास्तों का सफ़र याद आया।
छाँह में पलते हुए अश्मों की ,
अपने आँगन का शजर याद आया।
कोई है जो कि भूला-भूला सा,
फूल –सा जिन्दगी भर याद आया।
डॉ.भावना शुक्ल – बहुत ही शानदार ग़ज़ल सुनाई। यथार्थ का बहुत ही उम्दा चित्रण किया है। आप सुदीर्घकाल से साहित्य साधना कर रहे ,आप अनुभव संपन्न हैं| सबसे पहले हम जानना चाहेंगे कृपया आप हमें काव्य भाषा के सन्दर्भ में कुछ बताइए ?
डॉ राम दरश मिश्र – मैंने अपनी सृजन यात्रा कविता से ही प्रारंभ की थी और आज तक उसे शिद्दत से जी रहे हैं। मेरा पहला काव्य संग्रह ‘पंथ के गीत’ 1951 में प्रकाशित हुआ था। तब से आज तक कई संग्रह आ चुके हैं। इनमें कुछ ‘बैरंग-बेनाम चिटठियां’, ‘पक गई है धूप’, ‘कंधे पर सूरज’, ‘दिन एक नदी बन गया’, ‘जुलूस कहां जा रहा है’, ‘आग कुछ नहीं बोलती’ और ‘हंसी होंठ पर आंखें नम हैं’ जैसी बेहतरीन रचनाएं शामिल हैं।
कविता की भाषा सहज होनी चाहिए।भाषा ऐसी हो जिसमे खुलेपन की आड़ लेकर ‘कविता’को नग्न न किया जाये।अनेक कवि अपनी सहज भाषा के साथ फैंटेसी की चमक पैदा करते हैं।इसके साथ ही लोक गाथाओं का सानिध्य भी पा लेते हैं।एक बहुत मूल्यवान प्रसंग है।फ़िराक साहब का साक्षात्कार कुछ लोग ले रहे थे किसी से उनसे पूछा आपकी दृष्टि में विश्व का सबसे महँ ग्रन्थ कोण-सा है ?फ़िराक जी ने उत्तर दिया,’रामचरितमानस’|क्योकि रामचरितमानस सबसे सहज ग्रन्थ है और सहज लिखना बहुत कठिन होता है ;और उस जमाने के सारे भक्त कवि बड़े सहज थे।
डॉ.भावना शुक्ल – हम आपके लेखन प्रेरणा के सन्दर्भ में जानना चाहेंगे ?
डॉ राम दरश मिश्र – जब मै छठी कक्षा में था तब मुझे इतना महसूस हुआ था की मैंने कविता लिखी है।कविता मेरे भीतर की उपज थी।लेकिन कई वर्षों तक शिक्षा के क्रम में उस देहाती परिवेश में ही रहा जिनमे नए साहित्य की सर्जना का कोई वातावरण नहीं था।बस में अपनी गति से लिखता जा रहा था छन्द अलंकार आदि का अभ्यास कर रहा था और हिंदी साहित्य के जो गुरु थे उनसे प्रोत्साहन प्राप्त कर रहा था।कविता में और भाषा में जो निखर स्वत: आ रहा था,वो आ रहा था लेकिन मुझे ठीक ज्ञान नही था कि उस समय कविता का मिजाज और भाषा का रूप कैसा है।सन १९४५ में बनारस पहुँचने के बाद मैंने अपने को नए साहित्यकार के रूप में पाया और वहाँ से मेरी काव्य यात्रा प्रारंभ हुई।
साहित्य लेखन के लिए जिस संवेदना एवं भावुकता की आवश्यकता होती है। वह मेरी माँ में और मेरे पिताजी में थी।लोक साहित्य के साथ इन दोनों का गहरा जुडाव था।मुझे इन दोनों से ही प्रेरणा मिली जिसके आधार पर मेरी साहित्यिक रचना शुरू हुई और धीरे –धीरे परिवेश के प्रभाव में उसमे गति आ गई ,नई-नई दिशाएं खुलती गई। मेरी रचना को निखारने में मेरे गुरुओं और साहित्यिक मित्रों ने अपनी भूमिका निभाई।
डॉ.भावना शुक्ल – कविता की आलोचना के विषय में आपके क्या विचार है ?गुटबाजी की राजनीति से कविता पर क्या प्रभाव पड़ा है ?
डॉ राम दरश मिश्र – हिंदी साहित्य जगत में आलोचकों ने कविता की शानदार आलोचना लिखी है और हिंदी आलोचना को समृद्ध किया है।साहित्य में समरसता का माहौल देखते ही देखते न जाने कहाँ को गया।पिछले पांच -छह: दशकों में आलोचकों की गुटबाजी ने हिंदी कविता को काफी नुक्सान पहुँचाया है।आलोचकों ने सही व निष्पक्ष आलोचना लिखने के स्थान पर टुच्ची राजनीति को बढ़ावा दिया है। पुराने और नए कवियों को आगे बढाने और पीछे ढकेलने की कोशिश में लगे रहते हैं। कभी-कभी बिना पढ़े ही सरसरी तौर पर कविता देखी और आलोचना लिख दी, क्योंकि कवि को अधिक भाव नहीं देना है।और कभी कविताओं का अतिरंजित मूल्यांकन करते है।मुझे ऐसे आलोचकों और उनकी आलोचना पर आश्चर्य होता है जिन्हें निराला, दिनकर और मुक्तिबोध से भी अधिक वजनदार और महत्वपूर्ण लगती है युवा पीढी की कवितायेँ।
डॉ.भावना शुक्ल – क्या पुरस्कार लेखन की उत्कृष्टता का प्रमाण है ?
डॉ राम दरश मिश्र – हाँ अच्छे लेखन को सम्मान मिलता है और सहज भाव से मिलता है, तो सम्मान और लेखक दोनों गौरवान्वित होते हैं।सम्मान उत्कृष्ट लेखन के लिए एक तरह से सामाजिक तज्ञता है।लेकिन यह भी सही है कि आजकल सम्मान और पुरस्कार को पाने के लिए लेखकों में दौड़ धूप मची रहती है और अनेक तिकड़म भिडाये जाते है।ऐसी स्थिति में यदि सम्मान या पुरस्कार मिल भी जाता है तो अच्छा नही लगता ,लोगो के मन में आदर भाव नहीं रह जाता।
डॉ.भावना शुक्ल – आप अपनी विधागत रचना प्रक्रिया और रचनाओं के सन्दर्भ में कुछ कहना चाहेंगे ?
डॉ राम दरश मिश्र – मैं आपको बेटी एक बात बताना चाहता हूँ कि मैंने लिखने की प्रक्रिया के विषय में कुछ भी नही सोचा, जो मन में आया लिखता चला गया।मेरे जीवन में बहुत से अनुभव है उसे मैं में डायरी में उतार रहा हूँ।मैंने यह अनुभव किया की मैंने अपनी शक्ति भर साहित्य रच चुका हूँ और रचता जा रहा हूँ।
मै ‘अपने लोग ‘को अपना सर्वश्रेष्ठ उपन्यास मानता हूँ ‘और जल टूटता हुआ’ को भी इसी के समकक्ष रखता हूँ।मै कहना यह चाहता हूँ मै अपने हर प्रकार के लेखन से संतुष्ट हूँ।उपन्यास और आत्मकथा भी दी साहित्य को।एक लम्बी आत्मकथा है उपन्यास के रूप में जिसमे बचपन से लेकर आज तक के समय में व्याप्त परिवेश की विविधता का चित्रण हुआ है।यह मेरी राम कहानी नही है ,यह एक सामाजिक दस्तावेज भी है।श्री लाल शुक्ल ने एक बार कहा था अरे मिश्र जी , तुम्हारी आत्मकथा तो शिक्षा जगत का इतिहास बन गई है।अगर आत्मकथा अपने जीवन की घटनाओं और प्रसंगों की कहानी –मात्र है,तब तो वह गौण मानी जाएगी।
मैंने गीत, ग़ज़ल, छोटी कविताओं के साथ-साथ बड़ी लम्बी कवितायेँ भी लिखी है मुझे अब तड़प नहीं है कि मै यह नहीं लिख पाया वो नही लिख पाया और न ही की मै कल महान लेखक बनूँगा। मैं अपने लेखन से संतुष्ट हूँ।और आज भी लिख रहा हूँ।
डॉ.भावना शुक्ल – आपको लेखन के कारण कोई संघर्ष करना पड़ा ?
डॉ राम दरश मिश्र – मुझे अपने व्यक्तिगत जीवन में लिखने के कारण संघर्ष नहीं करना पड़ा, वरन इसके विपरीत सम्मान और यश मिलता रहा। हाँ, लेखक बनने के लिए मुझे बहुत संघर्ष करना पड़ा। शुरू के दिनों में भेजी गई कवितायेँ छपती नहीं थी। मैंने हार नहीं मानी। मेरे गुरुदेव हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने मुझसे कहा ,” तुम पान नहीं खाते हो, सिगरेट नहीं पीते हो , दूसरे खर्चे भी तुम्हारे नहीं हैं, इसलिए तुम डाक खर्च करो और भेजा करो।एक दिन तुम्हारी कवितायेँ जरुर छपेंगी।” गुरुदेव की सीख मैंने शिरोधार्य कर ली ।डाक से कवितायेँ पत्रिकाओं को भेजता रहा। मेरे संघर्ष का प्रतिफल साहित्य समाज के सामने है।
डॉ भावना शुक्ल – आपने विविध विधाओं में लिखा किस विधा ने आपको बहुत आकर्षित किया ?
डॉ राम दरश मिश्र – जी हाँ मैंने विविध विधाओं में लेखन किया है है और सभी मुझे प्रिय भी है और आकर्षित भी करती है साहित्यकार की हैसियत से, लेकिन एक लेखक की हैसियत से कविता ही मेरे बहुत निकट रही है।लेखन का प्रारंभ कविता से ही किया, उसके बाद कहानी में आया, फिर उपन्यास में आया ओए गाहे –बगाहे अनेक विधाओं में लिखा। एक बात की है रेखांकित करने की है कि बहुत से लोगों ने कविता से शुरुवात की और कथा में आकर कविता को छोड़ बैठे। जब वे लोग कहते है कि वे कविता से कहानी में आया, तो मै कहता हूँ मै कविता के साथ आया। कविता मेरी आधोपांत चलती रही और उसके साथ कथा साहित्य भी चलता रहा।वह मुझसे बाद में जुदा लेकिन यह कविता की तरह ही प्रिय रहा। खास करके उपन्यास तो मुझे बहुत प्रिय रहा,क्योकि जो बात मै कविता –कहानी में नहीं कह सकता , वह उपन्यास में मैंने कही।जीवन को जिस समग्रता से कोई और विधा नहीं देख पता।एक बार जब मै उपन्यास में फंसा तो फंसता ही गया और लगभग ग्यारह उपन्यास आ गये। एक बात और है कि कविता मुझे प्रिय है और कविता मेरी हर विधा के साथ लगी रही। चाहे निबंध लिख रहा हूँ , चाहे कहानी लिख रहा हूँ ,चाहे मेरी आत्मकथा हो, कविता का एक जो अपना दबाव या प्रसन्न प्रभाव है ,मेरे अन्य लेखन पर भी रहा है।कविता ही ने मुझे बहुत आकर्षित किया है।
डॉ.भावना शुक्ल – नवोदित रचनाकारों को आप कुछ मार्गदर्शन करेंगे ?
डॉ राम दरश मिश्र – मार्गदर्शन तो दो तरह से होता है। एक तो यह कि आप जो लिख रहे हैं ,वह अपने समय के साथ हो और आने वाली पीढ़ियों को महसूस हो कि आज के लेखन का यह सही स्वरुप हो सकता है। यानी कि वे आपके साहित्य को पढ़कर मार्ग पाएँ।और इस सन्दर्भ में एक बात बड़े महत्त्व की है। आपकी सर्जना और आपके विचार ऐसे हो जो नई पीढ़ियों को किसी तरह बांधते नहीं हों। ऐसा न हो कि आप उन्हें एक ख़ास विचार धारा में, एक ख़ास तरह के शिल्प में जकड दें और वे उसी जकडबंदी में मुबतला होकर अपना रचना कार्य करते रहें।
दूसरा रास्ता यह होता है कि नए लेखक आपसे मिलें। अपनी रचनाएं दिखाएँ आपको। आप अपनी रचना का सही-सही आकलन करके उनको उनकी शक्ति और अशक्ति की पहचान कराएँ। या उनकी रचना के प्रकाशन और प्रचार के लिए यथा संभव कुछ करें। मेरे पास जो भी नवोदित आते है मै उन्हें खुले मन से सुनता हूँ उन्हें मार्गदर्शन करता हूँ।बस मै एक बात और कहना चाहता हूँ जितना पढोगे उतना ही लेखन निखरेगा।
© डॉ.भावना शुक्ल
सहसंपादक…प्राची
wz/21 हरि सिंह पार्क, मुल्तान नगर, पश्चिम विहार (पूर्व ), नई दिल्ली –110056
मोब 9278720311 ईमेल : [email protected]
डॉ मिश्र जी से सार्थक चर्चा के लिए बधाई