डॉ सत्येंद्र सिंह
(वरिष्ठ साहित्यकार डॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – “घोंसला…“।)
☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 4 ☆
लघुकथा – घोंसला… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆
रोज की तरह संजय बैंच पर आकर विकास के पास बैठ तो गए पर लग ऐसा रहा था कि वे वहाँ उपस्थित ही नहीं हैं। वे अच्छी पोस्ट से रिटायर हुए हैं। अच्छी खासी पैंशन मिल रही है फिर भी बेचैन रहते हैं। विकास ने पूछ ही लिया कि भाई क्या बात है, आज इतने उदास क्यों हैं । मायूस होकर संजय बोले क्या बताऊँ यार घर मेंं रहना मुश्किल हो गया है। पता नहीं किस मिट्टी की बनी है मेरी पत्नी। जब तक माँ जिंदा थी तो किसी न किसी बात पर झगड़ती थी। माँ को कभी बहू का सुख नहीं मिला। दुखी मन से चली गई बेचारी। बेटे की शादी करके लाए, घर में बहू आ गई। सब खुश थे पर मेरी पत्नी नहीं। दहेज में उसे अपने लिए अँगूठी चाहिए थी, वह नहीं मिली तो बहू को ताना मारती रहती। ऐसा लगता था कि वह ताना मारने के अवसर ढूँढ़ती रहती । बेटा बहू दोनों नौकरी करते थे पर घर आने पर अपनी माँ का मुँह फूला हुआ पाते। उन दोनों को शाम को घर आते समय कभी हँसी खुशी स्वागत किया हो, ऐसा अवसर सोचने पर भी याद नहीं आता। आखिर वे दोनों घर छोड़ कर चले गए। किराए का फ्लैट ले लिया।
मेरे साथ तो कभी ढँग से बात की ही नहीं। अगर पड़ोसी कोई महिला मुझसे हँसकर बात करले तो बस दिन भर बड़ बड़। खाने पीने पार्टी करने, दोस्तो यारों में रहना मुझे अच्छा लगता है पर उसे अच्छा नहीं लगता। अब तो यही पता नहीं चलता कि वह किस बात से नाराज है। घर में कोई कमी नहीं। एक बेटी है वह भी अपनी माँ के चरण चिन्हों पर चल रही है। उसकी शादी कर दी है, पर माँ है कि उसे अपनी ससुराल में नहीं रहने देती। पति, सास, ससुर के खिलाफ हमेशा भडकाती रहती है। और तो और, मेरे साथ लड़ने को माँ बेटी एक हो जाती हैं। मैं दिन में घर से बाहर निकलता हूँ तो प्रश्नों की झडी लग जाती है कि कहाँ जा रहे हो, जा रहे हो तो यह ले आना,वह ले आना और जल्दी आना। अब रिटायर होने के बाद कोई काम तो है नहीं । इनके क्लेश से घर में रहना मुश्किल हो जाता तो शाम को घूमने के बहाने यहाँ पार्क में आ जाता हूँ। लौटने की इच्छा ही नहीं होती क्योंकि घर जाने पर पता नहीं माँ बेटी से किस बात पर क्या सुनने को मिले। पेट की आग तो बुझानी है, चुपचाप दो रोटी खा लेता हूँ। पता नहीं आज दोनों किस बात से नाराज़ हैं। जब मैं घर से निकल रहा था तो पीछे से कह रहींं थीं कि लौट के आने की जरूरत नहीं। विकास चुपचाप सुन रहे थे और पेड़ से गिरे बिखरे घोंसले को एकटक देख रहे थे। उन्हें लगा, कभी वे इसी घोंसले में बैठते थे।
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© डॉ सत्येंद्र सिंह
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