डॉ सत्येंद्र सिंह
(वरिष्ठ साहित्यकार डॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख – “चौथी सीट… “।)
☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 7 ☆
आलेख – चौथी सीट… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆
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छिहत्तरवेंं गणतंत्र दिवस के अवसर पर छिहत्तर वर्ष की आयु में जब पुणे में नई नवेली सी मेट्रो में स्वारगेट स्टेशन से संत तुकाराम नगर स्टेशन जाने के लिए सवार हुआ तो कोच में घुसते ही सामने की लंबी सीट पर और फिर उसके सामने की सीट पर एकदम नजर गई जो शायद खचाखच भीड पर ध्यान दिए बिना आखरी सीट ढूंढ़ रही थी। मेट्रो में आमने सामने की सीट पर एक ओर छह और दूसरी और सात यात्री बैठे थे। सात यात्रियों में एक यात्री तीसरे नंबर पर ठुसा हुआ था।
यह देखकर मेरे अंदर एक मुस्कान ने दस्तक दी और कहने लगी कि भूल गए चवालीस-पैंतालीस साल पहले बंबई (अब मुंबई) लोकल में जैसे तैसे घुसके चौथी सीट ढूंढ़ा करता था। हालांकि तब उम्र इक्कीस बत्तीस होने पर एकाध घंटे खड़े होने की ताकत थी, फिर भी तीन सीट वाली सीट के कोने पर जैसे तैसे बैठने के अभ्यास ने चौथी सीट का निर्माण कर दिया। चौथी सीट का दर्जा कैसे मिला किसने दिया, यह तो शोध का विषय है लेकिन है सत्य। तीन सीट वाली एक ही लंबी सीट पर चार लोग बैठते थे और यह सर्वमान्य था। एक सीट पर यदि तीन लोग नियमानुसार बैठे हैं और आप खडे़ हैं तो कोने पर बैठा तीसरा यात्री थोड़ा बहुत हिलडुलकर और दूसरे व पहले यात्री को हिलने डुलने का इशारा करके चौथी सीट बना कर आपके लिए जगह बना दिया करता था। यहाँ जान पहचान का कोई सवाल नहीं था। हाँ एक बात और अगर तीसरी सीट पर कोई महिला बैठी हो तो चौथी सीट का निर्माण नहीं होता था। कोई आग्रह भी नहीं करता था।
पुणे मेट्रो में सातवीं सीट के निर्माण की संभावना नहीं दिखाई देती। क्योंकि, मुंबई लोकल में यदि आप कल्याण से वीटी (अब सीएसटीएम) के लिए बैठे हैं और चौथी सीट भी न मिलने पर कोच के अंदर दो सीटों पर बैठे यात्रियों के बीच में पहुंच जाते थे तो आधे पौने घंटे के अंतराल पर पहला, दूसरा या तीसरा यात्री, इनमें से कोई भी व्यक्ति खड़ा हो कर आपसे थोड़ी देर बैठने का अवसर देकर राहत प्रदान करता था। यदि आपकी जगह कोई वृद्ध व्यक्ति अंदर तक आ गया हो तो कोई न कोई अपनी सीट से खड़े होकर उनको बैठने के लिए अपनी सीट दे दिया करता और स्वयं खड़ा रहता। जहाँ तक मुझे याद है उस समय ज्येष्ठ या वरिष्ठ नागरिक कोई अलग इकाई नहीं थी और लोकल में उनके लिए आरक्षित सीट भी नहीं थी परंतु वृद्धों को अलिखित, अकथित सम्मान व सुविधा स्वतः मिलती थी । इसी प्रकार महिलाओं का भी ध्यान रखा जाता था। लोग सीट से खडे होकर उनको बैठने की जगह दे दिया करते थे। आज भी ऐसा ही होता होगा। पर पुणे मेट्रो में ऐसा होगा, यह उम्मीद की जा सकती है। मेट्रो में गाड़ी की दीवार के किनारे पर सीट है जिस पर छः व्यक्ति बैठ सकते हैं और बाकी जगह खड़े रहने के लिए है। नियम कायदे अपनी जगह और सामाजिक दायित्व, बड़ों का लिहाज -खयाल, महिलाओं के प्रति सहानुभूति अलग बात है। लोकल में व्यक्ति नहीं इंसानियत दौड़ती थी, आज भी दौड़ती होगी और पुणे मेट्रो में भी दौड़ेगी। चौथी नहीं, सातवीं सीट का दर्जा भी शायद पैदा हो जाएगा।
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© डॉ सत्येंद्र सिंह
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चौथी सीट का प्रचलन मुंबई की लोकल ट्रेन में बहुत होता है, पर मात्र द्वितीय श्रेणी में। प्रथम श्रेणी में नहीं।
वास्तविकता का सुंदर चित्रण।
डा. वीरेन्द्र मिश्र, मुंबई।
पुणे मेट्रो और मुंबई लोकल उम्दा तुलना और आशावाद।बहुत अच्छी सकारात्मक सोच के लिए हार्दिक बधाई!💐💐