डॉ भावना शुक्ल
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 24 साहित्य निकुंज ☆
☆ अनुरागी ☆
प्रीत की रीत है न्यारी
देख उसे वो लगती प्यारी
कैसे कहूं इच्छा मन की
है बरसों जीवन की
अब तो
हो गए हम विरागी
वाणी हो गई तपस्वी
भाव जगते तेजस्वी
हो गये भक्ति में लीन
साथ लिए फिरते सारंगी बीन।
देख तुझे मन तरसे
झर-झर नैना बरसे
अब नजरे है फेरी
मन की इच्छा है घनेरी
मन तो हुआ उदासी
लौट पड़ा वनवासी।
देख तेरी ये कंचन काया
कितना रस इसमें है समाया
अधरों की लाली है फूटे
दृष्टि मेरी ये देख न हटे
बार -बार मन को समझाया
जीवन की हर इच्छा त्यागी
हो गए हम विरागी
भाव प्रेम के बने पुजारी
शब्द न उपजते श्रृंगारी
पर
मन तो है अविकारी
कैसे कहूं इच्छा मन की
मन तो है बड़भागी
हुआ अनुरागी।
छूट गया विरागी
जीत गया प्रेमानुरागी
प्रीत की रीत है न्यारी…
© डॉ.भावना शुक्ल
सहसंपादक…प्राची
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