श्री प्रभाशंकर उपाध्याय
(श्री प्रभाशंकर उपाध्याय जी व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। हम श्री प्रभाशंकर उपाध्याय जी के हृदय से आभारी हैं जिन्होने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के साथ अपनी रचनाओं को साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार किया। आप कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपकी विशिष्ट साहित्यिक सेवाओं पर राजस्थान साहित्य अकादमी का कन्हैयालाल सहल पुरस्कार प्रदत्त।
आज प्रस्तुत है एक अप्रतिम हास्य-व्यंग्य ‘नववर्ष के मेरे संकल्प…’।)
☆ हास्य व्यंग्य ☆ नववर्ष के मेरे संकल्प… ☆ श्री प्रभाशंकर उपाध्याय ☆
नए वर्ष की पूर्व संध्या पर अपने ने भी कुछ संकल्प ठाने थे। उनमें पहला था, प्रातःकाल सैर हेतु उद्यान जाएंगे। फलतः प्रातः होते ही पत्नी ने झिंझोड़ा, ‘‘घूमने जाइए।’’
रजाई में मूंसोड हुई स्थिति में स्थित रहते हुए पूछा, ‘‘धूप निकली?’’
‘‘अभी कहां? अगर निकली तो बारह बजे के बाद ही निकलेगी।’’
‘‘तो जिस दिन जल्दी निकलेगी, उस दिन जाएंगे।’’ मैं, अपना रजाई तप भंग नहीं करना चाह रहा था कि श्रीमतीजी ने रजाई खींच कर एक ओर डाल दी, ‘‘मैं चाय बना लायी हूं। नहीं पीनी हो तो बाद में खुद बना लेना।’’ अपन को अब, अहसास हुआ कि कल रात बेगम को अपना संकल्प बता कर कितनी बड़ी भूल कर बैठे थे? लिहाजा, हमने धूजणी से कंपकंपाते एक हाथ से कप थामा और दूसरे हाथ से रजाई को सीने से लगाया। तीन चार घूंट सुड़कने के बाद थोड़ी गर्मी प्रतीत हुई तो दूसरे हाथ में मोबाइल थाम लिया।
बेगम साहिबा सामने बैठ कर चाय की चुस्कियां ले रही थी। हाथ में मोबाइल सेट देख कर ताना मारा, ‘‘क्योंजी, कल तो प्रतिज्ञा ली थी कि सुबह से दो घंटे तक मोबाइल को छुएंगे भी नहीं।’’
‘‘घूमने जाता तो साथ थोड़े ही ले जाता?’’ मैं कुतर्क को उतर आया था। फिर तनिक संभल कर बोला, ‘‘सिटी एप पर लोकल न्यूज देख लेता हूं।’’
पहला समाचार पढते ही बेसाख्ता निकला, ’’शाबाश! बहादुरों।’’
‘‘क्या फिर कोई सर्जिकल स्ट्राइक हो गया है?’’ अर्द्धांगिनी ने जिज्ञासा जतायी।
‘‘नहीं। चोरों ने शहर में चार जगह चोरियां की और एक जगह ए.टी.एम. तोडा है। पुलिस के अनुसार रात के तीन से पांच बजे के दरम्यान ये सब हुआ।’’
‘‘अरे…इसमें बहादुरी की क्या बात हुई, भला?’’ बेटरहॉफ, बेटर खुलासा चाह रही थी। मैं बोला, ‘‘मैडम! चुहाते कोहरे की धुंधयायी रात में, जब शीत लहर तीखे नश्तर की माफिक बदन को भेदे जा रही हो, उस समय ठंड से अकड़ी अंगुलियों से सर्द पाइप को पकड़ कर मंजिल-दर-मंजिल चढना। बे आवाज रोशनदान या खिड़की काटना। दरवाजों के ताले तोड़ना अथवा सेंध लगाना। दुकानों की शटर या एटीएम को काटना-मोड़ना-तोड़ना। किसी की नींद में खलल नहीं डालते हुए पहरेदारों, पुलिस और कुत्तों से बचते हुए, मंद प्रकाश में कीमती सामान बटोर कर उसी मार्ग से हवा हो जाना, कोई कम बूते की बात है? और इनका नए साल का संकल्प तो देखो कि पिछले साल चोरी का औसत तीन चोरियां प्रतिदिन रहा लेकिन नए वर्ष का आगाज होते ही दो पायदान चढ गए हैं, पठ्ठे!’’
इसके बात दूसरी न्यूज बलात्कार की थी। उसे पढकर मैंने टिप्पणी की, ‘‘वाह! यह हुई, मर्दानगी।’’
‘‘अब, किसने मर्दानगी दिखा दी?’’
‘‘डीयर! कल रात एक बलात्कार भी हो गया, शहर में।’’
‘‘कैसे आदमी हो ऐसी खबरों पर आनंदित हो रहे हो?’’
‘‘हौंसले की बात है, मैडम! हमसे दूसरी रजाई में नहीं घुसा जाता और ये घोर शीत में दूसरे के घरों में जा घुसते हैं।’’ धत्त…बोलकर बीवी ने चाय का ट्रे उठाते हुए कहा, ‘‘ये निगेटिव समाचार पढना छोड़ो। रजाई भी छोड़ो और फिर से घुसे तो खैर नहीं।’’
खैर, अपन शौचालय को चले। कब्ज तथा बबासीर से सदा की भांति पीड़ा दी। जब हम ही नहीं बदले तो शरीर ने भांग थोड़े ही खायी है, जो बदल ले। खुद को बदलने का ख्याल छोड़ बाहर आए कि देखें नए साल में जग में कुछ बदला? सूर्यदेव पिछले वर्ष की भांति कोहरे में लिपटे हुए आराम फरमा रहे थे। पवन देव विगत वर्ष की तरह सन्ना रहे थे। पांचवे मकान में सास-बहू की रार का शाश्वत संवाद चल रहा था और उसका पूरे मोहल्ले में ब्रॉड-कॉस्ट हो रहा था। कचरा संग्रह करने वाली पिक-अप तीन दिन की तरह आज भी नदारद थी। दाएं पड़ोसी ने अपना कचरा प्रेमपूर्वक मेरे द्वार के आगे सरका दिया था लेकिन मैं उसे आगे नहीं ठेल सकता था क्योंकि बाएं वाले ने सदा की तरह अपनी कार को इस कदर स्नान कराया कि मेरे घर के आगे एक लघु तालाब बन गया था। विडंबना ये कि एक बदहाल वर्ष गुजार कर हम पुन: नई आशा और सपनों के साथ नए में प्रवेश करने जा रहे हैं। इस आशंका के साथ कि हंसने, रोने या गाने पर जी. एस. टी. तो न लगा दिया जाएगा। कसम से जब जब जी. एस. टी. काउंसिल की बैठक होती है दिल बैठने लगता है। पहले डाक सेवाओं पर टैक्स लगा फिर बुक पोस्ट सेवाएं हटा दी गई। नए साल में पत्रिकाएं/किताबें पढ़ने पर टैक्स न लग जाए ?
कहीं कुछ नहीं बदला, बस कलैंडर बदला है। जब हम ही नहीं बदले तो जमाने से उम्मीद बेमानी है, यह सोचकर अपन पुन: रजाई शरणम् गच्छामि हो गए।
© प्रभाशंकर उपाध्याय
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