हिन्दी साहित्य – हिन्दी कविता – ? टूट गया बंजारा मन ? – डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’
डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’
टूट गया बंजारा मन
माना रिश्ता जिनसे दिल का
दे बैठा मैं तिनका-तिनका
दिल के दर्द,कथाएँ सारी
रहा सुनाता बारी-बारी
सुनते थे ज्यों गूँगे-बहरे
कुछ उथले कुछ काफी गहरे
मतलब सधा,चलाया घन.
टूट गया बंजारा मन.
भाषा मधुर शहद में घोली
जिनकी थी अमृतमय बोली
दाएँ में ले तीर-कमान
बाएँ हाथ से खींचे कान
बदल गए आचार-विचार
दुश्मन-सा सारा व्यवहार
उजड़ा देख के मानस-वन.
टूट गया बंजारा मन.
जिस दुनिया से यारी की
उसने ही गद्दारी की
लगा कि गलती भारी की
फिर सोचा खुद्दारी की
धृतराष्ट्र की बाँहों में
शेष बची कुछ आहों में
किसने लूटा अपनापन.
टूट गया बंजारा मन.
कैसे अपना गैर हो गया
क्योंकर इतना बैर हो गया
क्या सचमुच वो अपना था
या फिर कोई सपना था
अपनापन गंगा-जल है
जहाँ न कोई छल-बल है
ईर्ष्या से कलुषित जीवन.
टूट गया बंजारा मन.
वे रिश्तों के कच्चे धागे
आसानी से तोड़ के भागे
मेरे जीवन-पल अनमोल
वे कंचों से रहे हैं तोल
छूट रहे जो पीछे-आगे
जोड़ रहा मैं टूटे धागे
उधड़ न जाए फिर सीवन.
टूट रहा बंजारा मन.
बाहर भरे शिकारी जाने
लाख मनाऊँ पर ना माने
अनुभव हीन, चपल चितवन
उछल रहा है वन-उपवन
‘नाद रीझ’ दे देगा जीवन
यह मृगछौना मेरा मन
विष-बुझे तीर की है कसकन.
टूट गया बंजारा मन.
© डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’