डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन ।  वर्तमान में संरक्षक ‘दजेयोर्ग अंतर्राष्ट्रीय भाषा सं स्थान’, सूरत. अपने मस्तमौला  स्वभाव एवं बेबाक अभिव्यक्ति के लिए प्रसिद्ध। आज प्रस्तुत है डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर ‘ जी  की एक विचारणीय आलेख ”जो कबिरा कासी मरै“।डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर ‘ जी  के इस सार्थक एवं  संत कबीर जी के विभिन्न पक्षों पर विमर्श के लिए उनकी लेखनी को सादर नमन।  ) 

 ☆ जो कबिरा कासी मरै ☆

कबीर की कविता अपने समय के समाज की प्राणवायु है।लेकिन आज भी वह उसी तरह बह रही है जैसी पहले बहती थी।उसकी चंदनी सुवास से आज भी वातावरण महमह महक रहा है।उसकी मूल्यगत महत्ता आज भी अप्रासंगिक नहीं हुई है।कबीर की कविता बहती हुई सरिता है,सरोवर या कूप का नीर नहीं जिसमें कालांतर में सड़न की गुंजाइश रहती है. वे संस्कृत और भाषा (हिंदी)के बहाने इस सत्य को कह भी जाते हैं-

“संसकीरत कूप जल ,भाखा बहता नीर. “

कबीर निजी जीवन में संत हैं और सामाजिक जीवन में समाज सुधारक। कुटिया के भीतर वे भले ही बहुत बडे निर्गुण संत और भक्त हैं पर उससे बाहर आते ही वे योद्धा हो जाते हैं।वे धूप-छांह वाली बदली नहीं घहरा कर बरसने वाले मेघ बन जाते हैं और भक्ति भाव की वह नदी बनकर बह उठते हैं जो केव ल भादों में ही नहीं प्यासों के लिए जेठ मास में भी बराबर बहती है-

“भक्ति भाव भादों नदी, सबै चलीं घहराय ।

सरिता सोइ सराहिये, जो जेठ मास ठहराय ॥ “

वे किसी को अतृप्त नहीं छोड़ना चाहते हैं।इसीलिए तो जेठ में भी जग को सीचने वाली नदी बने रहना चाहते हैं। इसलिए बाहर निकलते ही कभी लाठी तो कभी लुकाठा हाथ में थाम लेते हैं।कबीर उस व्यक्ति का नाम ही है जिसे खुद नहीं पता होता कि वह कब और क्या करने वाला है। लेकिन उसे हमेशा एक बात पता रहती है कि समाज की भलाई किसमे है।वह अंधेरा घिरा देखते हैं तो लुकाठा सबसे पहली अपनी ही कुटिया पर रखते हैं। उसके बाद कब किसकी कुटिया पर रख देंगे कोई नहीं जानता।वे भी नहीं जो हाथ जोडे उनके पीछे-पीछे चल पडे थे। लेकिन सबको विश्वास है कि हाथ में लुकाठा आते ही वे सच्चे पर अक्खड़ समाज चेता हो जाते हैं।जब भी और जहाँ भी खड़े होते हैं , सबको चेताते हुए चलते हैं-

“कबिरा खड़ा बजार में,लिए लुकाठा हाथ।

जो घर जारै आपना चलै हमारे साथ।।”

उन्हे खुद भी यह पता नहीं रहता है कि जब वे बाहर निकलते हैं तो उनकी भक्ति उनकी कुटिया के भीतर ही छूट जाती है।उस समय वे उस देह का ध्यान करते हैं जिस पर वस्त्र नहीं है। जिस पर वस्त्र नहीं होते उसके लिए वे लौटते ही वस्त्र बुनते हैं।वे उस वस्त्र को बुन कर नहीं छोड़ देते उसे पहनाते भी हैं ,जिसे उसकी ज़रूरत है। इसलिए कबीर जितने देह के भीतर हैं उससे अधिक वे देह के बाहर हैं।देह में होते हुए भी विदेह हैं।

कबीर सगुण की खाट खड़ी करने में माहिर हैं पर कभी-कभी खुद भी इसे गिराते हैं और उसी पर अपनी अन्मैली चदरिया बिछाकर बैठ जाते हैं।पाहन पूजने वालों को पानी पी-पकर गरियाते हैं।लेकिन खुद पाहन पूजते हैं।पर, चकिया पूजते हैं।वह इसलिए कि चकिया उपयोगी देवता है।दूसरा बेडौल हो या अति चिकना पाहन न तो उनके किसी काम का है और न उस जनता के ही लिए उपयोगी है ,जो पत्थरो के शिव्लिंग या अन्य देवी-देवताओं के सामने हाथ जोड़े खड़ी रहती है।

जहाँ पर शांति नहीं होती वहाँ वे शांति की आराधना करते हैं। उनकी नमाज़ वहीं होती है जहाँ कोई दुखियारी या दुखियारा होता है।वे उन्हें भली -भांति पता रहत है कि सबाब किसमें ज़्यादा है किसी गिरे हुए को उठाने में या नमाज़ अदा करने में। नमाज़ बाद में पढ़ते हैं। पहले तो वे गिरे हुए को उठाते हैं।ऐसे भक्त हैं वे।

कबीर को पढ़ते हुए वह युग सामने आ जाता है जब हिंदू-मुस्लिम आमने -सामने टकराते थे।लेकिन खून -खराबा शायद वैसा नहीं था जैसा सांप्रदायिक ज़हर फैलाने वाले बताते हैं।कबीर ने काशी में रहते हुए भक्ति की धारा में डुबकी लगाई।काशी विश्वनाथ के प्रांगण में ताल ठोंक कर हिंदू मुसलमान दोनों को ललकारा।यह केवल कबीर के बूते की बात थी।जब समाज को उसमें डूबते हुए देखा तो फौरन उससे बाहर आकर उन्हें चेताने लग गए। उन दिनों दोनों दीनों के लोग अपने-अपने धर्म को बेहतर बताते थे। लेकिन आज जैसा वैमनस्य उस समय शायद ही रहा हो।’ उनकी बोली-बानी और भाषा का रूप देखकर हम खुद ही अनुमान लगा सकते हैं कि यदि वे आज होते और अपने दोहे फेसबुक पर पोस्ट कर देते तो क्या उन्हें लाख-दो लाख से कम गालियां मिलतीं।हाथ कंगन को आरसी क्या पढ़े लिखे को फ़ारसी क्या’ चलें लगे हाथ उदाहरण भी देख ही लेते हैं-

“कांकर ,पाथर जोरि के, मस्ज़िद लई ,बनाय ।

ता चढि मुल्ल बांग दे,क्या बहरा हुआ खुदाय।।”

हिंदुओं को भी उन्होंने आड़े हाथों लिया –

“पाहन पूजे हरि मिलै ,तो मैं पूजूं पहार ।”

उन्होंने निंदा की तो जमकर की।इसमें अपनी,अपनों या परायों की जैसी कोई सीमा रेखा ही नहीं बनाई।कबीर के अलावा और किसमें इतना साहस है कि वह निंदक को खुले हृदय से स्वीकारे।इन्होंने निंदक को स्वीकारा ही नहीं बल्कि आंगन में ही उसकी कुटी भी छवा दी।शुभ चिंतकों ने टोका तो उसके लाभ भी बता दिए और उन्हें भी अपने आंगन में ऐसा ही करने की सलाह दे डाली ,

”निंदक नियरे राखिए, आँगन कुटी छवाय।

बिन साबुन पानी बिना, निर्मल करे सुभाय।।”

प्रशंसा की तो उसमें भी कोर कसर नहीं छोड़ी-

“लाली मेरे लाल की ,जित देखूं तित लाल।

लाली देखन मैं गई ,मैं भी हो गई लाल।।”

उन्होंने अपने लाभ के लिए कभी चाटुकारिता कभी नहीं की और किसी और को खुश करने के लिए कभी किसी अन्य की निंदा भी नहीं की । वे तो मस्तमौला थे।फक्कड़ थे।कुछ-कुछ औघड़ भी थे। मौज़ में आए तो किसी के भी चिमटा चिपका दिए और चलते बने।कोई रोया तो रुककर झाड़े तब चले।वे रमता जोगी बहता पानी थे।उन्हें रोक भी कोई कैसे सकता था।

उन्होंने कभी किसी को मझधार में नहीं छोड़ा ।वे खुद भी कभी बीच में नहीं रुके या तो इस पार या उस पार।उनकी खुद की अपनी धारा भी थी और विचारधारा भी।वे सामंजस्य के कवि थे। असमंजस के नहीं। न खुद असमंजस में रहे और न किसी को डाला। या तो खुद किनारे हो लिए या सामने वाले को किनारे कर दिया। अपनी नापसंदगी और गंदगी को कभी ढोया नहीं।जब कोई चीज़ अनावश्यक और भारी लगने लगी,उसे उतार फेंका और चलते बने।

२४ मई २०१६ को महामहिम राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी के क्वांग्चौ,चीन आगमन पर मैंने ‘इंदु संचेतना’का विशेषांक निकाला था।उसमें स्नातक चतुर्थ वर्ष की छात्रा सुश्री झांग्छिन(हिंदी नाम शांति) ने महामहिम के नाम पत्र छपने के लिए दिया।उस पत्र में उसने भारतीय साहित्य समाज और संस्कृति के प्रति युवाओं के आकर्षण का उल्लेख किया था। उसने अपने पत्र में भारत के साहित्यकारों का विशेष उल्लेख किया है।पहले हैं लेखक प्रेम चंद फिर कबीर।समाज चेता कबीर का प्रभामंडल इतना दीप्त है कि सभी उसकी रोशनी में कुछ न कुछ पढ़ ही लेते हैं।उसके पत्र का वह अंश उद्धृत कर रहा हूँ जिसमें उसने कबीर को ससम्मान उल्लिखित किया है-

“मैं चीन में गुओगडोंग यूनिवर्सिटी ओफ़ फ़ोरेन स्टाडीज़ में हिंदी का एडवांस कोर्स कर रही हूँ ।मुझे याद है कि छोटी आयु में ही मैंने प्रेमचंद की कई कहानियाँ मंडारिन (चीनी भाषा )में पढ़ी थीं।वे विलक्षण कहानियाँ इतनी रोचक लगी थीं कि मैं अब तक बिल्कुल उनमें ही मग्न रही हूँ।वास्तव में मशहूर कथाकार प्रेमचंद के अतिरिक्त और भी बहुत सारे लोकप्रिय लेखक और कवि/कवयित्रियाँ हिंदी में हैं जिन्हें हिंदी साहित्य के इतिहास में अपनी खास जगह मिली है।भक्तिकाल में कबीर सबसे अधिक प्रभावित करते हैं।खासकर अपनी बेबाक बानी के कारण भी वे मुझे सबसे अधिक प्रासंगिक लगते हैं।भारत की जाति-पांति और सांप्रदायिकता के विरुद्ध उतनी खरी बानी किसी की नहीं है जितनी कबीर की।मेरी समझ से साहित्य आईना जैसा होता है जो अपने समाज से संबंधित जाति व राष्ट्रीय निवासियों की मनः स्थिति और उनकी दशा को यथार्थपूर्ण शब्दों में प्रकट करता है।

हिंदी साहित्य से प्रेम के कारण मैं हिंदी सीखने भारत गई थी। भारत में रहते हुए उसकी सभ्यता और संस्कृति में मेरी ज़बरदस्त रुचि बढ़ गई।भारतीय शौक भी मुझे हो गए।अनेक रस्म-रिवाज़ निभाने और शौक रखने वाले भारतीय भी मुझे पसंद हैं।मुझे भारत सिर्फ एक देश भर नहीं लगा।उसका वैश्विक रूप ,अलग-अलग भाषाएँ।अलग-अलग खान-पान,रंग रूप सभी कुछ मुझे मोहता रहा है । दुनिया भर के लोगों के लिए बहुत सी सीखने लायक नयी-पुरानी चीज़ें हैं वहाँ।”

चीन के विद्यार्थी बड़े चतुर सुजान हैं। वे हमारे कवियों और लेखकों की खूबी और खामियां हमसे अधिक तर्क संगत ढंग से जानते -मानते हैं।ऊपर के अनुच्छेद में झांग्छिन जिसका हिंदी नाम शांति है ने बड़ी बेबाकी से सबसे पहले प्रेम चंद फिर कबीर का नाम लेते हुए साहित्य को समाज का दर्पण कहा है।साहित्य की बात करते हुए वह भावुक नहीं हुई है।जिन और कवि/लेखकों को उसने पढा है उनमें समाज को यह आईना दिखाने की वह ताकत उसे नहीं दिखी होगी जो इनमें दिखी।इसीलिए उसने सबसे प्रेम चंद फिर कवियों में कबीर का नाम लिया है।उसने साहित्य को जिस समाज का आईना कहा है,कबीर उसी आइने को लेकर गली -गली ,चौराहे -चौराहे सबको दिखाते घूमे हैं। यही उनकी सबसे बड़ी सामाजिक उपादेयता भी है।इसी लिए देश क्या विदेश में भी उनकी सामाजिक उपादेयता को मूल्यांकित भी किया जा रहा है।

उन्होंने अलग से रोने के लिए कोई चेले-चूले नहीं मूड़े। क्योंकि उन्हें इस बात का बिल्कुल डर नहीं था कि उनके लिए कोई रोने वाला होगा या नहीं। उलटे उन्हें यह भरोसा था कि उनके कर्म उन्हें समाज में अमर बनाए रखेंगे-

“जब आए थे जगत में ,जगत हंसा हम रोए।

ऐसी करने कर चलें,हम हंसें जग रोए।।”

उनका यह विश्वास उनके किसी भी समकालीन संत में नहीं था।फिर वे चाहे रविदास हों या नानक उनके अपने जीवन काल में ही सभी के पंथ दूर से नज़र में आने लगे थे। उनके फहराते हुए ध्वज हर आने-जाने वाले को चिल्ला-चिल्लाकर उनके पंथ बताने लगे थे। लेकिन कबीर के साथ ऐसा न था।लोग जान ही न पाते थे कि उनका पंथ क्या है?प्रेम उनका असली पंथ था।कबीर जग के भले में अपना भला समझते थे न कि केवल अपने या ध्वज के नीचे आए कुछ अपनों के मोक्ष में।इस दृष्टि से संसार उनके लिए ठीक उसी तरह मिथ्या नहीं था जैसा और संतों के लिए था। वे संसार से भी उसी तरह प्रेम करते थे जैसे खुद से और अपने खुदा से।इसलिए उन्होंने संसार और घोर संसारियों को बुरा भला कहकर भी उसी तरह गले लगाए रखा जैसे मां-बाप अपनी नादान और नालायक संतान को भी बड़े प्यार से गले लगाए रखते हैं। उन्होंने प्रेम को खानों या खांचों में भी बांटना कभी उचित नहीं समझा।उन्होंने प्रेम को बस प्रेम रहने दिया।उसमें अलग से कोई रंग नहीं मिलाया।उसे खुद भी छककर पिया और औरों को भी उसी विशुद्ध प्रेमामृत का पान कराया-

“कबिरा प्याला प्रेम का, अंतर लिया लगाय ।

रोम रोम में रमि रहा, और अमल क्या खाय ॥”

बैठ कर पुजाना पाप था उनके लिए।थकते भी नहीं थे वे।इसलिए जीवन भर चलते रहे। कुछ करने वाले को ही वे कुछ देने के पक्ष में रहते थे। अलस अकर्मा साधु या गृहस्थ उन्हें कभी नहीं रुचे। बड़े कर्मठ थे कबीर और उन्हें अपने कर्म पर अटूट भरोसा भी था। कर्म के प्रबल पक्षधर और अकर्मण्यता के धुर विरोधी थे वे।फिर वह चाहे तारने का दंभ भरने वाला भगवान ही क्यों न हो।उसको भी मुफ्त में यश देना उन्हें कभी नहीं रुचा।राम को भी काम पर लगाने के लिए उन्होंने हरी भरी काशी त्यागी और ऊसर-बांगर वाले मगहर को चल पड़े –

“जो कबिरा कासी मरै, रामै कौन निहोर।”

 

©  डॉ. गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

सूरत, गुजरात

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Shyam Khaparde

सुंदर जानकारी