हिन्दी साहित्य ☆ कविता ☆ तो सारी दुनियाँ हो एक इकाई ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(प्रस्तुत है  हमारे आदर्श  गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा वसुधैव कुटुम्बकम  के सिद्धांत पर आधारित कविता  ‘तो सारी दुनियाँ हो एक इकाई‘। ) 

 

 ☆ तो सारी दुनियाँ हो एक इकाई ☆ 

 

प्रभात किरणें हटा अँधेरा क्षितिज पै आ मुस्कुरा रही हैं

प्रगति की चिड़िया हरेक कोने में बाग के चहचहा रहीं है।

मगर अजब हाल है जिंदगी का, कि पाके सब कुछ विपन्नता है-

भरे हुये वैभव में भी घर में, झलकती मन की ही  खिन्नता है ।।1।।

 

बढ़े तो आवागमन के साधन, घटी भी दुनियाँ की दूरियाँ हैं-

कठिन बहुत पर है कुछ भी पाना, बढ़ी कई मजबूरियाँ हैं

सिकुड़ के दुनियाँ हुई है छोटी, मगर है मैला हरेक कोना-

रहा मनुज छू तो आसमाँ को, विचारों में पर अभी भी बौना ।।2।।

 

सराहना कम है सद्गुणों की, पसरती ही दिखती है बुराई

कमी है सहयोग की भावना की, अधिक है मतभेद तथा लड़ाई ।

दुखी है मानव, मनुष्य से ही, मनुष्य ही उसका है भारी  दुश्मन,

अधर में छाई है मधुर मुस्कान पै विष छुपाये हुये ही है मन ।।3।।

 

सरल और  सीधे हैं दिखते आहत, जो चाहते ममता प्यार मल्हम

विचारना है मनुष्यता को कि उनके दुख दर्द  सब कैसे हों कम

अगर सही सोच की सर्जना हो, तो इस धरा पै सुख- शान्ति आये

समाज में यदि हो संवेदना तो यही धरा स्वर्ग का रूप पायें ।।4।।

 

बदलनी होगी प्रवृत्ति मन की, मिटाने होंगे सब शस्त्र और बम

न हो कहीं भी जो ‘‘तू-तू – मैं-मैं‘‘ सभी का नारा हो एक हैं हम

कहीं न मन में हो भेद कोई तो न कहीं भी हो कोई लड़ाई

मिटेंगे सारी बनाई सीमायें, हो सारी दुनिया बस एक इकाई ।।5।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

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