श्री संतोष नेमा “संतोष”
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. आज प्रस्तुत है उनकी एक सामयिक रचना “माटी के दीपक जलें”. )
☆ दीपावली विशेष – माटी के दीपक जलें ☆
दीपक से दीपक जला, हुआ दूर अँधियार।
दीवाली में सभी के,रोशन हैं घर द्वार।।
लौटे थे वनवास से,आज अवध श्री राम।
झूम उठी नगरी सकल,हुई धन्य अभिराम
सदियों से ही हो रही,अच्छाई की जीत
नहीं बुराई ठहरती,यह सनातनी रीत
रहे स्वच्छ पर्यावरण,रखें हमेशा ध्यान
बारूदी माहौल से,रखें बचाकर मान।।
माटी के दीपक जलें,माटी ही पहचान
माटी से मानव बना,रख माटी का मान
आज रोशनी से भरी,घनी अमावस रात
नन्हा दीपक दे रहा,अँधियारे को मात
दीवाली की रात का,जगमग है परिवेश
लक्ष्मी माता कर रही,गृह में सुखद प्रवेश।
दीवाली की रोशनी,हर लेती अँधियार।
देखो दस्तक दे रहीं,खुशियाँ हर घर द्वार
दीपों की यह रोशनी,सबके लिए समान
ऊँच-नीच या पंथ का,कभी न रखती भान।।
खूब खरीदी कर रहे,सजा हुआ बाजार
जेब भरे धनवान के,है गरीब लाचार
दीप ज्ञान का जब जले,हटे तिमिर अज्ञान
दीप ब्रह्म है दीप शिव,दीप हृदय का गान
माँ लक्ष्मी द्वारे खड़ीं,सज्जित वन्दनवार
मिले शरण”संतोष” को,माँ की करुणाधार
आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)
मोबा 9300101799