हिन्दी साहित्य – ☆ कालजयी कविता ☆ वो मैं ही थी… ☆ – सुश्री निर्देश निधि
आज प्रस्तुत है हिंदी साहित्य की सशक्त युवा हस्ताक्षर सुश्री निर्देश निधि जी की एक और कालजयी रचना “वो मैं ही थी…”।
मैं निःशब्द हूँ, स्तब्ध भी हूँ शब्दशिल्प से और सहज गंभीर लेखन से ।सुश्री निर्देश निधि जी की रचनाओं के सन्दर्भ में कुछ लिखना सूर्य को दीपक दिखाने के समान है। उनके एक-एक शब्द इतना कुछ कह जाते हैं कि मेरी लेखनी थम जाती है। आदरणीया की लेखनी को सादर नमन।
ऐसी कालजयी रचना को हमारे विश्वभर के पाठकों तक पहुंचाने के लिए हम आदरणीय कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी के सहयोग के लिए ह्रदय से आभारी हैं। कैप्टन प्रवीण रघुवंशी न केवल हिंदी और अंग्रेज़ी में प्रवीण हैं, बल्कि उर्दू और संस्कृत में भी अच्छा-खासा दखल रखते हैं. उन्होंने हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए इस कालजयी रचना का अंग्रेजी अनुवाद उपलब्ध कराया है जिसे आज के अंक में आप निम्न लिंक पर भी पढ़ सकते हैं। )
आप सुश्री निर्देश निधि जी की अन्य कालजयी रचनाएँ निम्न लिंक पर पढ़ सकते हैं :
☆ वो मैं ही थी… ☆
जो प्रेम के निर्जीव तन पर
निर्ममता से पाँव रख, लांघ गई थी उस
उलझी – उलझी,
सदियों लंबी साँझ को
वो मैं ही थी
तुमने मेरे शांत स्थिर हुए चित्त में
सरकाईं थी अतीत की तमाम शिलाएँ
रखा था मन की सब झंकारों को मौन जिसने
वो मैं ही थी
तुम लाए थे तोड़ – मरोड़ कर प्रेम तंत्र की सब शिराएँ
नहीं गूँथा था मैंने किसी एक का, कोई एक सिरा भी दूसरी से
बैठी रही थी निश्चेष्ट, निर्भाव सी
वो मैं ही थी
सही थीं जिसने वियोग वाद्य की, उदास धुने बरसों बरस
वो भी कोई और नहीं
मैं ही थी
तुम चाहते थे अतीत की गहरी खदानों को
बहानों की मुट्ठी भर रेत से पाटना
यह देखकर जो मुस्काई थी तिर्यक मुस्कान
कोई और नहीं
मैं ही थी
तुम्हारे अपराध बोध की झुलसती धूप में
जिसने सौंपा नहीं था अपने आँचल का कोई एक कोना भी
और खड़ी रही थी तटस्थ
वो मैं ही थी
अगर होती हैं तटस्थताएँ अपराध तो
अपनी सब तटस्थताओं का अपराध स्वीकारा जिसने
वो भी तो मैं ही थी
ओझल होते ही तुम्हारे
अपनी सब तटस्थताओं को भुरभुरा कर रेत बनते देख
जो विकल हो डूबी थी खारे पानियों में
तुम मानो न मानो
वो भी कोई और नहीं
मैं ही तो थी
संपर्क – निर्देश निधि , द्वारा – डॉ प्रमोद निधि , विद्या भवन , कचहरी रोड , बुलंदशहर , (उप्र) पिन – 203001
ईमेल – [email protected]