श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’
(हम स्वयं से संवाद अथवा आत्मसंवाद अक्सर करते हैं किन्तु, ईमानदारी से आत्मसाक्षात्कार अत्यंत कठिन है। प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री भगवान् वैद्य “प्रखर” जी का आत्मसाक्षात्कार दो भागों में।)
☆ जीवनयात्रा ☆ मेरी सृजन-यात्रा – भाग – 2 ☆ श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’☆
प्रश्न: पहली रचना किस विधा में प्रकाशित हुई?
उत्तर: लेखन आरंभ हो चुका था। यहां-वहां रचनाएं प्रेषित की जाने लगी थीं। इन्हीं में से ‘रचना’ शीर्षक कविता ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ के 1 जुलाई 1973 के अंक में प्रकाशित हुई। यही थी प्रथम प्रकाशित रचना।
प्रश्न : विभिन्न विधाओं में आपकी एक हजार से अधिक रचनाएं स्थानीय से लेकर राष्ट्रीय-स्तर की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। यह आपके लिए कैसे संभव हो पाया? क्या संपादकों के साथ व्यक्तिगत संपर्क, वरिष्ठ लेखकों की सिफारिश या किसी और माध्यम से? आपका उत्तर निश्चित ही नये लेखकों के लिए मार्गदर्शक साबित होगा।
उत्तर: यह आपने अच्छा प्रश्न किया है। आपको बता दूं कि मैं रचना-प्रकाशन के संबंध में आजतक किसी भी संपादक से नहीं मिला।न ही मैंने कभी किसी को उसके लिए फोन किया। मैं लिखताहूँ। रचना किस पत्र-पत्रिका में प्रकाशन-योग्य है, यह विचार करता हूँ और डायरी में नोट करके रचना प्रेषित कर देता हूँ। अपेक्षित अवधि में अगर कोई सूचना नहीं मिली (पहले जवाबी पोस्ट-कार्ड लिखकर जानने का चलन था। आजकल ‘मेल’ या फोन करता हूँ।) तो रचना अन्यत्र प्रेषित कर देता हूँ। मेरा मानना है, रचना में अगर दम है तो वह पत्र-पत्रिका में खुद अपनी जगह बना लेती है। हां, प्रत्येक पत्र-पत्रिका की अपनी विचारधारा होती है जिससे वाकिफ़ होना जरूरी होता है। इस कारण कभी कोई रचना सामान्य पत्रिका में अस्वीकृत हो जाती है जबकि वही रचना राष्ट्रीय- स्तर की पत्रिका में स्वीकृत हो जाती है। संक्षेप में, आप हिंदी-भाषी हैं, हिंदीतर-भाषी हैं, प्राध्यापक हैं, डॉक्टर हैं या यह सबकुछ नहीं है- यह कुछ माने नहीं रखता। आपकी रचना देखी जाती है और चुनी जाती है। धर्मयुग, साप्ता. हिन्दुस्तान, सारिका, कादम्बिनी से लेकर स्थानीय अखबार तक के बारेमें मेरा यही अनुभव रहा है।
प्रश्न: आपकी रचना-प्रक्रिया कैसी होती है?
उत्तर: कोई तामझाम नहीं। जब, जहां, जैसे बन पड़ा, लिख लेता हूँ। मन में जब कभी कोई बिम्ब उभरता है तब चलते-फिरते कहीं नोट करके रख लेता हूं।- लेखन के लिए अधिक समय मिलना चाहिए इस कारण भारतीय जीवन वीमा निगम के शाखा प्रबंधक पद से चार साल शेष थे तब सेवा-निवृत्ति ले ली थी। लेकिन लेखन को प्रथम प्राथमिकता कभी न दे सका। आज तक भी नहीं। पहले नौकरी प्रथम क्रमांक पर रही । अब परिवार है, गृहस्थी है, मित्र हैं,सामाजिक दायित्व है । इन सबके बाद समय मिले तब साहित्य-सृजन है। इस कारण लेखन का कोई निश्चित समय नहीं है। जब संभव हो, राइटिंग-पैड लेकर बैठ जाता हूँ। अब लैप-टॉप है। फिर कोई काम आया कि उठ जाताहूँ। मैं नियमित दिनचर्या में विश्वास रखता हूँ। देर तक जाग नहीं सकता। छात्र-जीवन में भी समय पर सो जाता था। जाहिर है, रचना कई-कई बैठकों में पूरी होती है।
प्रश्न: कोई रचना एक बार में लिख लेते हैं या बार-बार सुधार आवश्यक होता है?
उत्तर: रचना पूरी लिख लेने के बाद उसे कई बार पढ़ता हूँ। कम-अज-कम तीन -चार प्रारूप तो बनते ही हैं। उठते -बैठते मंथन जारी रहता है। सटीक और परिष्कृत शब्द की खोज की धुन अहर्निश सिर पर सवार रहती है। अंतिम प्रारूप के बाद विंडो-ड्रेसिंग। संदेहास्पद हिज्जों की जांच। यह सब होने के बाद कुछ दिनों के लिए ‘रचना’ को भूल जाताहूँ। (अगर कहीं प्रेषित करने की जल्दी न हो तो) एकाध सप्ताह बाद फिर रचना को पढ़ता हूँ लेकिन अबकी अपने नहीं अपितु पाठक /संपादक के नजरिये से। आवश्यकता महसूस हुई तो फिर कोई संशोधन। इसके उपरांत रचना अंतिम रूप से तैयार हो जाती है।बा-कायदा लिफाफा तैयार होता है। जांच-पड़ताल करके पता लिखा जाता है। स्वयं जाकर पोस्ट कर आता हूँ। इसलिए शायद ही कभी ऐसा हुआ हो कि मैंने रचना पोस्ट की और अपने पते पर नहीं पहुंची। आजकल एक सुविधा हो गयी है। लिफाफे की जगह वैट्स-अप अथवा ‘मेल’ ने ले ली है।
प्रश्न: आपके अबतक 4 व्यंग्य -संग्रह, 3 कहानी-संग्रह, 2-2 लघुकथा और कविता-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। 35 कहानियों सहित मराठी की छह पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद किया है। अर्थात इन सभी विधाओं में आपका उल्लेखनीय योगदान है। इस कारण जानना चाहेंगे कि इन में से किस विधा के साथ अपने आप को सर्वाधिक सम्बद्ध पाते हैं अर्थात अपने आपको किस रूप में पहचाना जाना पसंद करेंगे? व्यंग्यकार, कहानीकार, कवि, लघुकथाकार, अनुवादक या कुछ और?
उत्तर: जो लिख चुका, वही सबकुछ नहीं है। इसलिए वह मेरी पहचान नहीं बन सकता। एक उपन्यास- लेखन की कल्पना मन में है। आत्मकथा की शुरुआत कर चुका हूं। कुछ रेखा-चित्र लिखने हैं। अनुवाद -कार्य अभी संपन्न नहीं हुआ है। इसलिए कह नहीं सकता कि कौन-सी विधा मेरी पहचान बनेगी। आरंभ में जरूर ‘व्यंग्यकार’ के रूप में जाना जाता था। इसलिए जब कोई ‘परिचय’ पूछता है तो ‘साहित्यकार’ या ‘लेखक’ बतलाता हूं।
प्रश्न: आप विगत 48 वर्षों से लेखन-प्रकाशन से सम्बद्ध हैं। समय के साथ इस क्षेत्र में क्या बदलाव महसूस करते हैं?
उत्तर: वर्तमान समय में सुविधाएं बहुत हो गयी हैं। पहले हाथ से लिखते थे। सुधार के बाद सिरे से ड्राफ्ट कॉपी करना पड़ता था। कार्बन रखकर प्रतियां निकालते थे। फिर टाईप- मशिनें आ गयीं । अब लैप-टॉप/ पी.सी. पर सब काम होता है। जो चाहे, जितनी बार चाहे, सुधार कर लो। एक क्लिक के साथ प्रिंट- आउट निकल आता है।
प्रश्न : यह तो हुआ लेखकीय- स्तर पर बदलाव। प्रकाशन -स्तर पर क्या बदलाव महसूस करते हैं?
उत्तर: बदलाव महसूस हो रहा है, संवाद में। लेखक-संपादक अथवा लेखक -प्रकाशक में संवाद की कमी हो गयी है। जितने संवाद के साधन बढ़ गये उतना संवाद का अकाल पड गया। धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान , कादम्बिनी, सारिका समान पत्रिकाओं से भी एक रचना के संबंध में चार-चार बार संवाद हो जाता था। पहले स्वीकृति-पत्र, अगर रचना ‘विचारार्थ-स्वीकृत’ है तो पत्र, किस अंक में आ रही है उसकी बा-कायदा सूचना, छपने पर अंक, फिर पत्र के साथ चेक या मनी आर्डर । किसी कारण से रचना में सुधार वांछित हो तो टिप्पणी के साथ रचना वापिस । सुधार के साथ भेजने पर स्वीकृति -पत्र आ जाएगा। नवभारत- टाइम्स को प्रेषित कहानी की लंबाई अधिक थी। विश्वनाथ जी ने कौन-सा हिस्सा कम किया जा सकता है, इस सुझाव के साथ रचना वापिस की । सुधार करके भेजने पर तुरंत छप गयी। रमेश बतरा जी की दृष्टि में लघुकथा उत्कृष्ट होने के बावजूद उसकी लंबाई किस प्रकार बाधा बनी हुई है, यह टिप्पणी लिखकर रचना वापिस की। ‘धर्मयुग’ में व्यंग्य स्वीकृत हुआ। बा-कायदा स्वीकृति पत्र आया। उसके बाद ‘क्यों लौटाना पड़ रहा है’ इस मजबूरी को व्यक्त करते पत्र के साथ रचना वापिस आयी। …संपादक बदलने के बाद नये संपादक का अपने लेखकों से जुड़ने के लिए रचना आमंत्रित करता हुआ पत्र। -यह गुजरे जमाने का पत्र-व्यवहार अब ‘धरोहर’ बन कर फाइलों की शोभा बढ़ा रहा है।
आजकल ‘रचना के साथ ‘वापसी के लिए टिकट लगा लिफाफा’ भेजने का चलन लगभग बंद हो गया है। ‘डाक’ की बजाए ‘मेल’ या ‘वैट्स-अप’ का चलन बढ़ रहा है। बहुत कम पत्र-पत्रिकाएं स्वीकृति/ अस्वीकृति की सूचना देना जरूरी समझती हैं। रचना प्रकाशन हेतु संबंधित पत्र-पत्रिका की सदस्यता की अनिवार्यता का चलन बढ़ रहा है। पारिश्रमिक देनेवाली पत्रिकाएं वार्षिक शुल्क काटकर पारिश्रमिक दे रही हैं। -लेकिन इन सब बातों के अलावा इधर एक अच्छी बात देखने को मिल रही है। बीच में एक कालखण्ड ऐसा आया जब लघु -पत्रिकाओं का अस्तित्व खतरे में पड़ता नजर आ रहा था। लेकिन अब संख्या बढ़ रही है और लघु- पत्रिकाएं साहित्य-सृजन के क्षेत्र में बहुत अच्छी और महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं।
प्रश्न: पुराने और नये लेखकों में क्या बदलाव महसूस करते हैं?
उत्तर: पुराने लेखक सृजन में अधिक विश्वास करते थे। उनकी प्रतिबद्धता लेखन के प्रति होती थी। उत्कृष्ट लेखन किस प्रकार होगा, इसकी चिंता लगी रहती थी। उपलब्धि क्या होगी इस ओर ध्यान न था। नया लेखक व्यावहारिक है। लिखते समय सोचता है, इससे मुझे क्या उपलब्ध होगा? किस प्रकार लिखने से छपेगा? कहां छपने से पारिश्रमिक मिलेगा? पुस्तक छपी तो पुरस्कृत कैसे होगी? कभी-कभी लगता है, उनका इस प्रकार सोचना गलत नहीं है। पहले ‘लेखक’ को समाज में प्रतिष्ठा थी । सम्मान था। सम्मानित व्यक्ति के शब्द को कीमत थी। अब धन सर्वोपरि हो गया हो गया है। समूची व्यवस्था ही बदल गयी है। सम्मान के, संबंधों के मानदण्ड बदल गये हैं। समाज का कोई घटक इससे अछूता न रहा। लेखक भी नहीं।
प्रश्न: आपके लेखन को जो महत्व मिला या मिल रहा है, क्या आप उससे संतुष्ट हैं?
उत्तर: जी, सबसे पहले तो मैं यह स्पष्ट कर दूं कि मैं लेखन के प्रति प्रतिबद्ध हूं न कि पुरस्कार, सम्मान या और किसी और प्रकार के महत्व के प्रति। उसके बावजूद मैं यह कहना चाहता हूं कि मुझे जो कुछ मिला और मिल रहा है उससे मैं पूरी तरह संतुष्ट हूं। आप विचार कीजिये कि मैं हूं क्या? चलिये, एक वाकया बतलाता हूं। केंद्रीय हिंदी निदेशालय का हिंदीतर भाषी -हिंदी लेखकों के लिए एक पुरस्कार है, एक लाख रुपयों का। उसकी पुस्तक मूल्यांकन- समिति पर सदस्य के रूप में मेरा चयन हुआ था, वर्ष 2012 से 2014 के लिए। निदेशालय में बैठक आयोजित थी। दोपहर में भोजन के दौरान वहां के एक वरिष्ठ अधिकारी से यूं ही पूछ लिया, ‘सर, इससे पूर्व तीन मर्तबा बायो-डाटा मँगवाया गया लेकिन चयन नहीं हुआ था।क्या कारण रहा होगा, जान सकता हूं?’ उत्तर मजेदार था। कहने लगे, ‘प्रखर जी, आपका सरनेम है, वैद्य। निखालस महाराष्ट्रीयन। मातृभाषा, मराठी। निवास, महाराष्ट्र में। नाम के आगे न ‘डॉ.’ लगा हुआ है न प्रा. (डॉक्टर या प्राध्यापक) पढ़ाई देखो तो महज बी. ए.। अच्छा, नौकरी भी हिंदी-अध्यापक या प्रशिक्षक आदि नहीं। मतलब प्राइमा-फेसी ‘हिंदी के विद्वान या जानकार’ जैसा कुछ नहीं। अर्थात जब तक पूरा चार पेज का बायो-डाटा न पढ़ो तब तक पता ही नहीं चलता कि आपका हिंदी में क्या कुछ योगदान है? और यहां तो ‘प्रा.’ और ‘डॉ.’ की लाइन लगी रहती है?’ -ऐसी स्थिति में आप ही बतलाइए कि मुझे जो मिला वह क्या कम है? एक और रहस्य है। मैंने पाया कि मुझे जो,जब मिलना है, उसके लिए अपने- आप संयोग बन जाता है। मेरा ‘कथादेश’ का वार्षिक-शुल्क कब का समाप्त हो चुका था फिर भी पता नहीं कैसे, अचानक डाक में एक अंक आ गया। उसमें ‘आर्य-स्मृति साहित्य सम्मान 2018’ का विज्ञापन था। मैंने रचनाएं भेजीं और पुरस्कार मिल गया।मैं आज भी सोचता हूं, ‘कथादेश’ का वह अंक मुझे कहां से और कैसे आ गया था?
प्रश्न: पाठकों की प्रतिक्रिया के बारे में आपकी क्या राय है?
उत्तर: भांति-भांति के पाठक मिले। हर वर्ग के, हर आयु के , हर क्षेत्र के। और विभिन्न भाषाओं के भीं। इन सब के इतने प्यारे अनुभव हैं कि बयान करने के लिए एक किताब ही लिखनी पड़ेगी। केवल दो-एक का ही उल्लेख करना चाहता हूं। एक दिन सुबह-सुबह लैण्ड-लाइन पर फोन आया। कहा गया, ‘मैं न्यूजीलैण्ड के ऑकलैण्ड से मि. कोंडल बोल रहा हूं।’ मैं समझा, कोई मजाक कर रहा है। लेकिन बार-बार दोहराने पर मैंने कहा, ‘चलो, मान लेते हैं।आगे बोलिए।’ अब वे मेरे कहानी-संग्रह ‘चकरघिन्नी’ की कहानियों के नाम बतलाने लगे। जो कहानियां पढ़ ली थीं,उनके बारेमें बतलाने लगे। मैंने उनसे पूछा, आपको किताब कहां से मिली तो बतलाया गया कि वहां की स्टेट -लाइब्रेरी से। उसके बाद मि. और मिसेज कोण्डल दोनों कहानियां पढ़ते और फोन पर देर तक बतियाते रहते। यह सिलसिला कई दिनों तक चलता रहा। उनसे खासी मित्रता हो गयी। मैंने अपनी कुछ और पुस्तकें उनके पतेपर भेजीं। बाद में प्रकाशक से पता चला कि सरकारी खरीद में ‘चकरघिन्नी’ की कुछ प्रतियां विदेश भेजी गयी थीं उन्हीं में से एक न्यूजीलैण्ड पहुंच गयी थी।
एक और वाकया सुनिये । मेरी एक कहानी है, ‘स्लेट पर उतरते रिश्ते।’ नागपुर के दैनिक ‘लोकमत समाचार’ के साहित्य परिशिष्ट में प्रकाशित हुई। अगले दिन एक प्रतिष्ठित प्राध्यापक हाथ में वह अखबार लेकर सुबह-सुबह घर पहुंच गये। गुस्से में भुनभुनाते हुए। कहने लगे, ‘आप यह बतलाइए कि मेरे घर की यह बात आप तक कैसे पहुंची? मैं हतप्रभ! कुछ समय तक बातचीत के बाद वे सामान्य हो गये और देर तक कहानी की प्रशंसा करते रहे।
‘जिज्ञासा’ कहानी में एक दिव्यांग बालिका निन्नी अपनी दीदी से छतपर बने पानी के टाँके में तैरती सुनहरी मछली के क्रियापलाप के बारेमें सुनकर मछली देखने के लिए बेताब हो उठती है। उसकी तीव्र जिज्ञासा उसे अगले दिन अल्स्सुबह घर के भीतर बनी सीढ़ियां चढ़कर छतपर पहुंचा देती है। ‘क्या सचमुच वह अपने पोलिओग्रस्त पैरों से ऐसा कर पायी?’ वस्तुस्थिति जानने और निन्नी को देखने की इच्छा रखने वाले पाठकों के कितने फोन, कितने दिनों तक आते रहे, क्या बतलाऊं?
ऐसे हर कहानी, हर लघुकथा ने कितने ही पाठक जोड़े हैं। मैं अपनी कहानी के पात्रों के नाम भूल जाता हूं लेकिन पाठक याद दिला देते हैं तो कहानी का संसार जी उठता है और लेखन के लिए मिलती है नयी ऊर्जा।
प्रश्न:अच्छा हम लोग बातचीत आगे जारी रखेंगे लेकिन जरा यह बतला दीजिए कि कोई रचना इतनी प्रभावशाली कैसे बनती हैं?
उत्तर: इसका एक रहस्य है। रहस्य यह है कि रचना में कोई बात तो ऐसी हो जो ‘सच’ हो। चाहे कितनी भी छोटी, एक बिंदू ही क्यों न हो, पर पूरी तरह ‘सच’ हो। यह ‘सच’ जितना पुख्ता होगा, जितना मजबूत होगा उतनी रचना प्रभावशाली बनेगी। पत्रकारिता के बारेमें कहा जाता है कि पूरी रिपोर्ट में अगर एक छोटा-सा तथ्य भी गलत हो जाये तो पूरी रिपोर्ट की विश्वसनीयता समाप्त हो जाती है। साहित्यिक रचना में अगर एक छोटी-सी बात भी सत्य है तो वह पूरी रचना को प्रभावशाली बना देती है। एक और बात । रचना में कोई घटना, कोई तत्व ऐसा होना चाहिये जिससे पाठक लेखक के साथ एकाकार हो जाये।अगर यह हो गया तो समझिए आपका लेखन सार्थक हो गया।
प्रश्न: क्या आप अपने बारेमें ऐसा कुछ बतलाना चाहते हैं जो मैंने नहीं पूछा।
उत्तर: हां। मैं यह बतलाना चाहता हूँ कि मुझसे किसी की झूठी प्रशंसा नहीं होती। न ही मुझे किसी की झूठी प्रशंसा अच्छी लगती है। मैं क्या हूँ, एक व्यक्ति के रूप में, लेखक के रूप में- यह मैं भलीभांति जानता हूँ। उसी नाप का तमगा बर्दाश्त करता हूँ। उससे अधिक किसी ने पहनाने की कोशिश की तो मैं असहज हो जाता हूँ।
मेरी एक आदत है, जो जानता हूँ कि अच्छी नहीं है। मैं किसी को हद से ज्यादा बर्दाश्त करता हूँ। इतना कि मुझे पीड़ा होने लगती है। लेकिन उसके बाद भी अगर उस व्यक्ति में बदलाव नहीं आया तो मैं उस व्यक्ति से हमेशा के लिए संबंध तोड़ देताहूँ। इस कदर कि वह व्यक्ति मेरे लिए संसार से ‘कम’ हो जाता है।
प्रश्न: नवोदितों के लिए कोई संदेश?
उत्तर: क्या संदेश दूं? इतने साल से लिख रहा हूं पर अब भी स्वयं को नवोदित ही मानता हूं। नयी पीढ़ी प्रतिभाशाली है, ऊर्जावान भी है। पर ‘जल्दी’ में है। उसके पास न पढ़ने के लिए समय है न सहिष्णुता। आठ – दस रचनाओं में उसे वह सब चाहिए जो प्राप्त करने के लिए बरसों लग जाते थे। मेरे एक मित्र म. रा. हिन्दी साहित्य अकादमी के सदस्य थे। उनसे एक नये लेखक का फोन पर वार्त्तालाप मैंने सुना। कह रहा था, ‘मैंने अपना एक कविता -संग्रह अकादमी को पुरस्कार के लिए प्रस्तुत कर दिया है। आप कुछ कीजिए कि उसे पुरस्कार घोषित हो जाये।’ मित्र उसे कई प्रकार से समझाने की कोशिश कर रहे थे। आखिर में, लेखक ने यहां तक कह दिया कि अगर आप पुरस्कार न दिलवा सके तो फिर आपके अपने शहर से ‘अकादमी के सदस्य’ होने का क्या लाभ? -यह है मानसिकता! सब कुछ तुरंत चाहिए। नहीं मिला तो जैसे सारी दुनिया ने उन पर अन्याय कर दिया! नहीं छपा, तो संपादक जैसे ‘शत्रु’ हो गया। -इस प्रकार की मानसिकता ‘साहित्य-सृजन’ ही नहीं अपितु किसी भी कला-क्षेत्र के लिए उपयुक्त नहीं है । ध्यान रहे, लेखकीय-कर्म जिम्मेवारी भरा कार्य है। साहित्य अंधेरे में रोशनी की तरह काम करता है। वह समाज को बनाता भी है और बिगाड़ता भी है। दूसरी बात । लेखन के रास्ते पर जैसे-जैसे आगे बढ़ते हैं, रास्ता बजाए प्रशस्त होने के, संकरा होता जाता है। लेखक को अपने ही वर्ग के लोगों से जूझते हुए आगे बढ़ना होता है। उस समय केवल ‘परिश्रम’ हमारा साथ देता है। परिश्रम कोई विकल्प नहीं है। और है तो वह है, ‘कठिन परिश्रम।’ शब्द-सामर्थ्य और सम्प्रेषण-शक्ति में वृद्धि के लिए पठन-पाठन और अभ्यास आवश्यक है। अंतत: यही कहना चाहूंगा कि जितना पढ़ेंगे, उतना बढेंगे। अपनी कलम पर भरोसा रखें, सब का एक समय आता है। साधना पूरी हो जाएगी तो मंजिलें पता पूछते हुए खुद चली आएंगीं।
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© श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’
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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈