श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”
(आज से प्रत्येक रविवार हम प्रस्तुत कर रहे हैं श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित ग्राम्य परिवेश पर आधारित एक धारावाहिक उपन्यासिका “पगली माई – दमयंती ”।
इस सन्दर्भ में प्रस्तुत है लेखकीय निवेदन श्री सूबेदार पाण्डेय जी के ही शब्दों में -“पगली माई कहानी है, भारत वर्ष के ग्रामीण अंचल में पैदा हुई एक ऐसी कन्या की, जिसने अपने जीवन में पग-पग पर परिस्थितिजन्य दुख और पीड़ा झेली है। किन्तु, उसने कभी भी हार नहीं मानी। हर बार परिस्थितियों से संघर्ष करती रही और अपने अंत समय में उसने क्या किया यह तो आप पढ़ कर ही जान पाएंगे। पगली माई नामक रचना के माध्यम से लेखक ने समाज के उन बहू बेटियों की पीड़ा का चित्रांकन करने का प्रयास किया है, जिन्होंने अपने जीवन में नशाखोरी का अभिशाप भोगा है। आतंकी हिंसा की पीड़ा सही है, जो आज भी हमारे इसी समाज का हिस्सा है, जिनकी संख्या असंख्य है। वे दुख और पीड़ा झेलते हुए जीवनयापन तो करती हैं, किन्तु, समाज के सामने अपनी व्यथा नहीं प्रकट कर पाती। यह कहानी निश्चित ही आपके संवेदनशील हृदय में करूणा जगायेगी और एक बार फिर मुंशी प्रेमचंद के कथा काल का दर्शन करायेगी।”)
इस उपन्यासिका के पश्चात हम आपके लिए ला रहे हैं श्री सूबेदार पाण्डेय जी भावपूर्ण कथा -श्रृंखला – “पथराई आँखों के सपने”
☆ धारावाहिक उपन्यासिका – पगली माई – दमयंती – भाग 13 – सीढियाँ ☆
(अब तक आपने पढ़ा —- किस प्रकार पगली का बचपना बीता, ससुराल आई, सुहाग रात के दिन का उसका अनुभव बहुत अच्छा नहीं रहा। उसकी सुहागरात उसके जीवन की अनकही कहानी बन कर रह गई। देर से ही सही उसकी गोद भरी, पति जहरीली शराब पीकर मरा, पुत्र आतंकी हिंसा में मरा। उसके जीवन की कहानी दर्द और पीड़ा की जीवंत मिसाल बन कर रह गई। वह लगातार जीवन में घटने वाले दुख के पलों वाले घटनाक्रम को झेल नही पाई और पिता द्वारा बचपन में अनजाने में दिया संबोधन सच साबित हो गया। वह सच में ही पागल बन गई। इसी बीच घटी एक घटना नें पगली के हृदय को ऐसी चोट पहुंचाई कि वह दर्द सह नहीं पाई। वह अब दिन रात रोती रहती है। तभी इस घटना क्रम में एक नया मोड़ आया और गोविन्द के रूप में एक नये कथा नायक का जन्म हुआ और वह पगली के जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन कर उभरा। अब आगे पढ़े——-)
उस दिन पहली बार गोविन्द घर छोड़ कर बाहर निकला था मजबूर होकर। उसे बाहर का कोई ज्ञान न के बराबर था। वह दो दिन से बिना कुछ खाये पिये सड़कों पर भटक रहा था। कही शरण नहीं मिली उसे,
आखिर वह थक हार कर भूख से बिलबिलाता हुआ शहर के मुख्य मस्जिद की सीढ़ियों पर पडा़ रोये जा
रहा था। लोग आते नमाज पढ़ते, सिजदा करते चले जाते। किसी की निगहबानी में वह यतीम नही आया था।
वह खुदा के दर पर पड़ा। बस रोये जा रहा था, सहसा मस्जिद से निकलने वाले आखिरी शख्स बादशाह खान की निगाहें उस यतीम पर पडीं, जिसने बादशाह खान के आगे बढते कदमों को थाम लिया था। उसके बढ़ते कदम तब ठिठक गये थे, जब उसने रोते हुए अपरिचित बच्चे को देखा। तो चल पडे़ उसके कदम उस यतीम की ओर उसके आंसू पोंछने। कहा भी गया है कि जमाने में जिसका कोई नहीं उसका खुदा होता है और यह बात उस समय अक्षरशः सत्य साबित हुई थी। तो फिर खुदा के दर पर पडे़ गोविन्द का भला कैसे नही होता।
गोविन्द ने अपनी सारी आप बीती रोते रोते ही सुनाई थी, जिसे सुनकर बादशाह खान की आंखें भर आईं थी।
उसनें उसे उसी क्षण खुदा की अमानत समझ अपने साथ रखने का संकल्प ले लिया। झिलमिल करते आंसुओं की कसक को उस रहमदिल इंसान ने उस दिन बडी़ शिद्दत से महसूस किया था। बादशाह खान बेऔलाद था। उसने गोविन्द को खुदा की नजरें इनायत समझ अपनी औलाद की तरह पाला था। बादशाह खान और उसकी पत्नी राबिया नें उसे सगी औलाद से भी ज्यादा प्यार दिया था, वो दोनों ही उस पर। अपनी जान छिड़कते थे। अपना सारा प्यार उसपर उड़ेल दिया था। अब बादशाह खान उसे अच्छे स्कूल में पढाने के साथ उसकी दीनी तालीम के लिए अपने एक ब्राह्मण मित्र को बतौर शिक्षक रख धार्मिक शिक्षा दिलाने का प्रबंध कर दिया था। बादशाह खान एक नेक रहमदिल खुदा का बंदा था।
धार्मिक कट्टरता का उससे दूर दूर तक कोई वास्ता नही था। वह सभी धर्मों का समान रूप से आदर करता था। वह केवल इंसानियत का हामी था। वह बेहद निडर तथा साहसी प्रकृति का इंसान था। उसका सिर केवल खुदा के दर पे झुकता था। उसमें इंसानियत का जज्बा कूट कूट कर भरा था। उसकी नेक परवरिश ने गोविन्द को भी इंसानियत का खिदमतगार बना दिया था। अब गोविन्द बड़ा हो चला था। पढा़ई के लिए कालेज भी जाने लगा था और कालेज में एन सी सी में भर्ती हो गया था।
– अगले अंक में7पढ़ें – पगली माई – दमयंती – भाग – 14 – मिलन
© सूबेदार पांडेय “आत्मानंद”
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