श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

(आज से प्रत्येक रविवार हम प्रस्तुत कर रहे हैं  श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित ग्राम्य परिवेश पर आधारित  एक धारावाहिक उपन्यासिका  “पगली  माई – दमयंती ”।   

इस सन्दर्भ में  प्रस्तुत है लेखकीय निवेदन श्री सूबेदार पाण्डेय जी  के ही शब्दों में  -“पगली माई कहानी है, भारत वर्ष के ग्रामीण अंचल में पैदा हुई एक ऐसी कन्या की, जिसने अपने जीवन में पग-पग पर परिस्थितिजन्य दुख और पीड़ा झेली है।  किन्तु, उसने कभी भी हार नहीं मानी।  हर बार परिस्थितियों से संघर्ष करती रही और अपने अंत समय में उसने क्या किया यह तो आप पढ़ कर ही जान पाएंगे। पगली माई नामक रचना के  माध्यम से लेखक ने समाज के उन बहू बेटियों की पीड़ा का चित्रांकन करने का प्रयास किया है, जिन्होंने अपने जीवन में नशाखोरी का अभिशाप भोगा है। आतंकी हिंसा की पीड़ा सही है, जो आज भी  हमारे इसी समाज का हिस्सा है, जिनकी संख्या असंख्य है। वे दुख और पीड़ा झेलते हुए जीवनयापन तो करती हैं, किन्तु, समाज के  सामने अपनी व्यथा नहीं प्रकट कर पाती। यह कहानी निश्चित ही आपके संवेदनशील हृदय में करूणा जगायेगी और एक बार फिर मुंशी प्रेमचंद के कथा काल का दर्शन करायेगी।”)

इस उपन्यासिका के पश्चात हम आपके लिए ला रहे हैं श्री सूबेदार पाण्डेय जी भावपूर्ण कथा -श्रृंखला – “पथराई  आँखों के सपने”

☆ धारावाहिक उपन्यासिका – पगली माई – दमयंती –  भाग 14 – मिलान ☆

(अब  तक आपने पढ़ा  —- अभी तक आप ने पगली के जीवन की पूर्वाध की कथा पढ़ी, अब उसके जीवन की उत्तरार्ध की कथाओं का अवलोकन करे, आपको पता चल जायेगा। कि किन घटनाओं ने पगली को पगली से पगली माई बना सामाजिक सम्मान के शीर्ष पर स्थापित कर दिया, उस कड़ी में पगली भले ही दुर्गा माई, लक्ष्मी माई सरस्वती माई का स्थान ग्रहण न कर पाई हो, लेकिन उस लड़ी की एक कड़ी तो बन ही गई। आगे पढ़ें —-)

दोपहर का समय बीत चला था, भगवान भास्कर चमकते हुए अस्ताचल गामी हो चले थे।  पगली अपनी बेखुदी में अस्फुट स्वरों में मन ही मन कुछ बुदबुदाती हुइ आगे बढ़ी चली जा रही थी।  उसी समय पास में चल रही प्रायमरी पाठशाला में बच्चों का अवकाश हुआ था।

पगली को पास से गुजरते देख शरारती बच्चों की एक टोली पगली के पीछे पड़ गई थी।  वे उसे पगली पगली कह चिढ़ाते जा रहे थे।  सहसा पगली आवेशित हो चीख पडी़। उसने बच्चों को दौड़ा भी लिया था।  शरारती बच्चों ने उसपर पत्थरों की बौछार कर थी।  उन पत्थरों से चोटिल पगली जमीन पर गिर पड़ी थी।

उसी समय राह गुजरते कुछ लोगों नें बच्चों को ललकारा तो वे गधे की सींग की तरह वहाँ से गायब हो गये।

पगली परकटी पंछी  की तरह गिर कर चोटिल हो  छटपटा उठी थी।  दर्द और पीड़ा से बुरा हाल था उसका।  कुछ समय बाद वह उठ कर धीरे धीरे चलती हुई अपने अंजान गंतव्य की तरफ बढ़ चली थी।  उसे बुखार हो आया था।  दर्द और पीड़ा सेबुरा हाल था उसका।  उसके बदन के पोर पोर दर्द से टूट रहे थे।

उस दिन उस क्षेत्र में एन सीसी की एक बटालियन पगली के गाँव में कैम्प कर रही थी।  उस बटालियन का एक सक्रिय सदस्य गोविन्द भी था।  वह कैम्प के सामाजिक कार्यों मे बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेता था।  जाड़े का मौसम था।  धीरे धीरे चलती हुई सनसनाती ठंढी हवा शरीर में चुभन का एहसास करा रही थी।   आकाश काले बादलों से आच्छादित था।  आकाश  में काले बादलों का डेरा था।  आवाजाही तथा लुका छिपा का क्रम जारी था। ऐसा लग रहा था जैसे बादल अब बरसे तब बरसे।

उस दिन ग्राम प्रधान के अहाते में ही पूरी बटालिय रूकी  हुइ थी।  आज प्रधान ने सारे कैडेट्स तथा अधिकारियों के सम्मान में भोज का आयोजन किया था।  वातावरण में भातिभांति के पकने वाले पकवानों की सुगंध घुली हुई थी।  जो भोजन बनाने वालों के विशिष्ट कला का परिचय दे रही थी।

कैडेट्स की कठोर दिनचर्या तथा चले सफाई अभियान की मेहनत ने थका कर रख दिया था।  शाम के समय टोलियों में बटे कैडेट्स अपने पसंद के कार्यो में लग गये थे।  कोइ समय बिताने के लिए ताश के पत्ते फेट रहा था, तो कोइ अंत्याक्षरी खेल रहा था।

वही पर अधिकारी गांव के विकास का खाका खींच रहे थे, कही लोक परंपराओं में व्याप्त कुरितियों के पक्ष विपक्ष में गर्मागर्म बहस जारी थी।

इन सबके बीच सबसे अलग दिखने वाले व्यक्तित्व का मालिक गोविन्द अहाते के कोने में खड़े बरगद के नीचे चबूतरे पर  बैठा ना जाने किस उधेड़ बुन में खोया हुआ अकेला बैठा था।  ना जाने क्यों उसे रह रह कर अपनी माँ की याद आ रही थी, जो उसे बेचैनी भरा एहसास दे रही थी।  उसका मन व्याकुल था।  अंधेरा हो चला था, चिन्तन मे खोये उसके स्मृति पटल पर अंकित माँ की छबि तैरती तो अनायास उसकी आँखों को भिगो जाती।

वह उस दरख़्त के नीचे अपने ही ख्यालों में गुमसुम खोया था कि उस नीरव वातावरण को चीरती हुई करूणा से ओतप्रोत एक आवाज (अरे मोरे ललवा कंहा छोड़ि के परईले रे) उसके कर्ण पटल से टकराई थी।

उस आवाज में छिपी पीड़ा लाचारी, तथा बेबसी के एहसास ने गोविन्द के भावुकता भरे हृदय को आंदोलित कर दिया। अब अनायास ही गोविन्द के पांव उस दर्दभरी आवाज की दिशा मेंबढ़ चले थे। घने अंधेरे को चीरता  वह उसी दिशा में बढा जा रहा था।  उसे खेत की मेड़ पर एक इंसानी छाया दोनों हाथ उपर उठाये दुआ मांगने के अंदाज में बैठी दिखी थी।  जो बार बार अपनी करूण आवाज में अपने जिगर के टुकड़े को पुकार रही थी, जो इस दुनियाँ में था ही नही, उसकी आवाज में बस जमानेभर का दर्द समाया था। वह दर्द पीड़ा, बेबसी से कराह रही थी।

अचानक  गोविन्द  को सामने देख पगली का मन ऐसे मचल उठा जैसे कोई छोटा बच्चा खिलौने की चाह में  मचलता है।  गोविन्द भी खुद को रोक नहीं पाया था और माई माई कहते कहते हुए पगली के पावों से जा लिपटा था।  पगली ने जब गोविन्द का स्नेहिल स्पर्श पाया अपनी दुख तथ

पीड़ा के पल भूलकर उसे बाहों में भर अपने गले लगा लिया था।  उसके माथे को बेतहासा चूमती चली गई थी, उसे लगा जैसे उसका बिछड़ा गौतम ही
उससे गले आ मिला हो, उसकी ममता आंखों के रास्ते सावन भादों की बूंदे बन। बरस पड़ी थी। उन मां बेटों का मिलन देख उनके मिलन के साक्षी आकाश की आंखों से भी मानो करूणा बरस रही थी।  अब हल्की हल्की बारिश होने लगी थी।  गोविन्द पगली का हाथ थामे तेज गति से ग्राम प्रधान के अहाते की तरफ बढ़ा चला जा
रहा था।

– अगले अंक में7पढ़ें  – पगली माई – दमयंती  – भाग – 15 – कर्मपथ 

© सूबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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