हिन्दी साहित्य ☆ धारावाहिक उपन्यासिका ☆ पगली माई – दमयंती – भाग 4 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”
श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”
(आज से प्रत्येक रविवार हम प्रस्तुत कर रहे हैं श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित ग्राम्य परिवेश पर आधारित एक धारावाहिक उपन्यासिका “पगली माई – दमयंती ”।
इस सन्दर्भ में प्रस्तुत है लेखकीय निवेदन श्री सूबेदार पाण्डेय जी के ही शब्दों में -“पगली माई कहानी है, भारत वर्ष के ग्रामीण अंचल में पैदा हुई एक ऐसी कन्या की, जिसने अपने जीवन में पग-पग पर परिस्थितिजन्य दुख और पीड़ा झेली है। किन्तु, उसने कभी भी हार नहीं मानी। हर बार परिस्थितियों से संघर्ष करती रही और अपने अंत समय में उसने क्या किया यह तो आप पढ़ कर ही जान पाएंगे। पगली माई नामक रचना के माध्यम से लेखक ने समाज के उन बहू बेटियों की पीड़ा का चित्रांकन करने का प्रयास किया है, जिन्होंने अपने जीवन में नशाखोरी का अभिशाप भोगा है। आतंकी हिंसा की पीड़ा सही है, जो आज भी हमारे इसी समाज का हिस्सा है, जिनकी संख्या असंख्य है। वे दुख और पीड़ा झेलते हुए जीवनयापन तो करती हैं, किन्तु, समाज के सामने अपनी व्यथा नहीं प्रकट कर पाती। यह कहानी निश्चित ही आपके संवेदनशील हृदय में करूणा जगायेगी और एक बार फिर मुंशी प्रेम चंद के कथा काल का दर्शन करायेगी।”)
☆ धारावाहिक उपन्यासिका – पगली माई – दमयंती – भाग 4 – खुशियों भरे दिन ☆
(आपने अब तक पढ़ा – आपने पढा़ किसान परिवार में जन्मी दमयन्ती को माँ बाप के प्यार ने पगली नाम दे दिया। बचपन बीता, जवानी के दहलीज पर कदम रखते विवाह हुआ, उसकी सुहागरात नशे के चलते दर्द और पीड़ा की अनकही कहानी बन कर रह गई। अब आगे पढ़ें ——–)
इन्ही परिस्थितियों में संघर्ष करते करते पगली ने काफी समय ससुराल में गुजार दिया, उसका बचपन परिस्थितियों से संघर्ष करते हुए युवावस्था के साथ समय के अंतराल में कहीं खो गया।
सुहागरात के दिन दोस्तों के साथ लगा नशे का चस्का पगली के पति तथा पगली के लिए अभिशाप सिद्ध हुआ था। नशा तो अब उसकी आदत बन चुकी थी। पगली जितना ही नशे को छुड़ाना चाहती वह उतना ही दीवाना होता चला गया। पगली को ससुराल आये काफी अरसा गुजर गया। वह युवावस्था पार कर प्रौढा़वस्था की दहलीज पर खड़ी थी, लेकिन अब भी उसका आंगन बच्चों की किलकारियों के लिए तरस रहा था। उसकी ममता निराशा के गर्त मे डूबी जा रही थी। उसके जीवन में एक खालीपन उभर आया था। सास-ससुर पोते पोतियों का मुंह देखने और उनके साथ खेलने की लालसा दिल में लिए ही स्वर्ग सिधार गये थे।
अब उसका अपने पति से मोह भंग हो चुका था। क्योंकि उसका पति कामचोर, ऐयाश एवम्ं जुआरी हो गया था। नशा और जुआ ही उसके जीवन का उद्देश्य बन कर रह गया था। उसका ब्यक्तित्व बिखर चुका था।
यद्यपि उसका पति जब होश में होता तो उसे अपने कुकर्मो पर पश्चाताप भी होता। वह पगली के पैरों पर गिर कर क्षमा भी मांग लेता। फिर कभी शराब न छूने की कसमें भी खाता। हर बार भोली भाली पगली पति के बाहों मे सिमट जाती। यह सोच कर कि वह जैसा भी है, है तो आखिर उसका पति ही। वह पगली को दिलोजान से चाहता भी था। वह उसके रूप सौन्दर्य का पुजारी था। ऐसा लगता जैसे प्रेम के कुछ पलों में वह अपना सारा प्यार पगली पर लुटा देना चाह रहा हो। यही वो पल होते जब पगली सारे गिले शिकवे भूल पति के साथ प्रेम के सागर में डूब जाती।
लेकिन अपनी आदतों के कारण जब उसका पति शराब के ठेके पर जाता तो अपनी सारी कसमें वादे भुला कर शराब पीने लगता और इंसान से हैवान बन पगली से पेश आता। सौतन शराब की पीड़ा इतना दुख दे जाती कि पगली आंसू भरे नेत्रों से भगवान की मूर्ति के समक्ष फूट फूट कर रो पड़ती।
अब माता पिता की मृत्यु के बाद उसका पति और स्वछंद हो गया था। पहले घर के जानवर बिके फिर, तन के गहने उसके बाद जमीन गिरवी पड़ती जा रही थी। संपन्नता की जगह विपन्नता ने डेरा डाल दिया था।
इन्ही परिस्थितियों में रहते, अचानक एक दिन पगली पर भगवान गोविन्द कृपालु हुए थे। सहसा उसे महसूस हुआ कि उसकी जिन्दगी में बहार आने वाली है। खुशियों के पुष्प खिलने वाले हैं। उसके घर कोई नया मेहमान आने वाला है। घर आने वाले बचपन के क्षणों की कल्पना कर मुस्कुरा उठी थी वह। उसका सारा दर्द सारी पीडा़ छू मंतर हो गई, सारे अवसाद के क्षण भूल कर पगली खुशियों के सागर में डूबती चली गई थी। ऐसा लगा था जैसे बहारों ने उसके घर में डेरा डाल दिया हो। जैसे धूप मे जलते पथिक को झुरमुटों की छांव मिल गई हो। खुशी के इन्ही पलों के साथ उसका समय कटता जा रहा था।
अब पगली का प्रसवकाल समीप था उसका पति उस दिन भरपूर पैग चढा़ गिरता पड़ता घर आया था, तथा टूटी चारपाई पर नशे में लेटा, उनींदी आखों से घर का भीतरी दृश्य देख रहा था।
लेकिन नशे की अधिकता उसके हाथ-पांव पर भारी पड़ रही थी। वह उठ नही पा रहा था। गहन अंधेरी रात का कुछ पहर बीतते बीतते पगली प्रसव पीड़ा से छटपटा उठी। उसकी चीखें सुनकर पड़ोसिने अपना पड़ोसी धर्म निभा रही थी। कोई दाइ बुलाने दौड़ा था, कोई पानी गर्म कर रहा था, कुछ बड़ी बूढ़ी महिलाए उसे धैर्य दिलासा दे हिम्मत बंधा रही थी। उसका असहाय पति निर्निमेष निगाहों से अपना आंगन तक रहा था, जहां दर्द पीड़ा से छटपटाती पत्नी बिलख रही थी। खुदगर्जी का शिकार उसका पति मन ही मन अपनी विवशता पर रोये जा रहा था। इसी बीच दर्द और पीड़ा की अधिकता से पगली चीख पडी थी तथा उसका घर आंगन नवजात शिशु के रूदन से गूंज उठा। उसके आंगन में खुशियां ही खुशियां बिखर गई। उसकी जीवन की डूबती नौका को जीने का सहारा मिल गया था। उसने अपनी आँखों में एक बार फिर नये सपने सजाये थे। अपनी गृहस्थी के घरौंदे को फिर से संवारने मे जुट गई थी पगली। उसके जीवन से रूठे पल वापस आ गये थे। उसने अपने बच्चे का नाम गौतम यानि (शान्ति का मसीहा) रखा था।
उसकी जीवन नौका को एक नया सहारा मिला था। उसने एक बार फिर निराश आंखों में नये सपने सजाये थे। एक बार फिर वह सपने सजाने में जुट गई थी। उसके जीवन से रुठे खुशियों के पल वापस लौट आये थे।
– अगले अंक में पढ़ें – पगली माई – दमयंती – भाग -5 – गौतम
© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”
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